बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां, जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
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गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
एक ऐसा शायर जिसकी कलम से हर तरह के मिज़ाज को महसूस किया जा सकता था। जिसकी शायरी में जोश, प्यार, विद्रोह, रूमानियत, इंसानियत.. हर पहलू की झलक दिखाई पड़ती है। जी हां, हम बात कर रहे हैं उर्दू के मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ की। एक पत्रकार, मजदूर, फौजी, देश-प्रेमी, सरकारी नौकर.. हर किसी को अपना अक्श उनकी शायरियों में दिखने लगता है। आज 20 नवंबर को फैज़ अहमद फैज़ की 39वीं डेथ एनिवर्सरी है। इस अवसर पर जानते हैं उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
कुरान के दो चैप्टर ही मुश्किल से याद हुए
शायर फैज़ अहमद फैज़ का जन्म पंजाब के नारनौल कस्बे (जो कि अब लाहौर के पास सियालकोट) में 13 फरवरी, 1911 को हुआ था। उनके वालिद सुल्तान मुहम्मद खां सियालकोट के जाने-माने बैरिस्टर थे। पांच बहनों और चार भाईयों के बीच फैज़ सबसे छोटे और सभी को प्यारे थे। बचपन में जब फैज को कुरान पढ़ने के लिए भेजा गया तो वो वापस आ गए और वहां मुश्किल से दो ही चैप्टर याद कर पाए थे।
ग़र बाज़ी इश्क की बाज़ी है, तो जो भी लगा दो डर कैसा,
जीत गए तो बात ही क्या, हारे भी तो हार नहीं
पहली मुलाक़ात में एलिस को दिल दे बैठे फैज़
फैज़ अहमद फैज़ जब अमृतसर में रहने के लिए आए तो वो इस दौरान ही एलिस नाम की एक लड़की से मिले थे। अपनी पहली ही मुलाक़ात में वे एलिस को दिल दे बैठे। एलिस का परिवार ब्रिटिश इंडिया में इस तरफ़ रहता था और वो अपनी बहन से जब मिलने आई थी, वहीं फैज़ से मिली और इश्क हो गया। फ़िर प्यार का सिलसिला शुरू हुआ जो वर्ष 1941 में शादी के मुकाम पर पहुंच गया। इस तरह दोनों हमसफ़र बन गए।
जेल में गए तो होने लगी फांसी की चर्चा
फैज़ अहमद फैज़ ने हमेशा अपनी शायरी में सोये जमीरों को जगाने की कोशिश की और वो दबे कुचलों की बुलंद आवाज बन कर सामने आए। इन सब के बीच फैज को कई बार जेल की हवा भी खानी पड़ीं। जब वर्ष 1951 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खां का तख्तापलट करने की कोशिशें हुई तो साजिश करने वालों में फैज़ अहमद फैज़ को भी गिरफ्तार किया गया। फैज़ के जेल में रहने के दौरान मीडिया में उनकी फांसी तक की चर्चा होने लगी थीं। आखिरकार, साल 1955 में फैज़ को रिहा किया गया। जेल में रहते हुए उन्होंने कई कविताएं और शायरियां लिखी, जो लोगों के बीच काफ़ी पसंद भी की गईं।
रूस में लेनिन ‘शांति पुरस्कार’ से नवाजे गए
फैज़ का जेल से निकलने के बाद हमेशा से यही कहना था कि उनको जेल में डालने के पीछे कभी कोई वजह नहीं रहीं। वर्ष 1963 में फैज को सोवियत रूस में लेनिन ‘शांति पुरस्कार’ से नवाजा गया। आखिरकार 20 नवंबर, 1984 को वो दिन आया जब उर्दू शायरी का एक चिराग हमेशा के लिए बुझ गया, फैज़ अहमद फैज़ के इंतकाल के बाद उनकी आखिरी शायरी ‘ग़ुबार-ए-अय्याम’ के नाम से छपी। उसी की एक नज़्म है-
हम मुसाफ़िर यूं ही मसरूफ़े सफ़र जाएंगे
बेनिशां हो गए जब शहर तो घर जाएंगे
किस क़दर होगा यहां मेहर-ओ-वफ़ा का मातम
हम तेरी याद से जिस रोज़ उतर जाएंगे
जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ारे-सुख़न
हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएंगे
नेमते-ज़ीस्त का ये करज़ चुकेगा कैसे
लाख घबरा के ये कहते रहें मर जाएंगे
शायद अपना ही कोई बैत हुदी-ख़्वां बनकर
साथ जाएगा मेरे यार जिधर जाएंगे
‘फ़ैज़’ आते हैं रहे, इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम
आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएंगे।
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