देश को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा वक्त हो गया है। व्यवस्थाएं संविधान के अनुकूल चल रही है। पर कहते हैं समय के साथ लोगों के जेहन में व्यवस्थाएं घर करने लग जाती है, लोगों को शासन सत्ता और सुविधाओं से इतना मोह हो जाता है कि वे कोई परिवर्तन उसमें देखना ही नहीं चाहते हैं। फिर चाहे शासन व्यवस्था राजतंत्र हो या लोकतंत्र, मार्क्सवादी हो या समाजवादी, सब उसी ढर्रे पर चलाना पसंद करती हैं। यह सुनने में आया है और अब यह देखने में आ रहा है। आज आरक्षण बड़ा मुद्दा है, जिस पर लोगों की बयानबाजी आती रहती है। हां, आज वक्त है मंथन करने का, गरीबों के लिए त्याग का, न कि राजनीतिक दलों द्वारा दिए गए भड़काउ भाषणों पर अपना धैर्य खोने का।
आरक्षण को लेकर आज कई तरह के बयान आते हैं, कोई उसे समाप्त करना की जुगत में हैं तो कोई उसे बनाए रखने की कोशिश में है। हां, सच भी है आरक्षण को जिन्दा रखना कुछ राजनीतिक पार्टियों की मजबूरी है तो कुछ उन लोगों की जो अब इससे अपनी रोजी—रोटी छीनने से डरते हैं।
एक समय था जब राजंतत्र और सामंतवर्ग से उनके अधिकार छीने गए तो उन्हें कितनी पीड़ा हुई थी, उन्होंने इसका बहुत विरोध किया था। ऐसा ही नशा अब आरक्षण प्राप्त लोगों की रगों में घर कर गया है, उनमें केवल अब जो आरक्षण का फायदा उठा चुके हैं वही लोग इसका फायदा उठा रहे हैं।
जो मेहनती है उन्हें न तो आरक्षण की जरूरत है और न वे इसके प्रति अपनी गलत सोच रखते हैं। वे तो अपना मार्ग स्वयं ढूंढ़ लेते हैं। आरक्षण की जरूरत वाकई आज भी जरूरी है, किंतु सच तो यह है आरक्षित वर्ग का वह गरीब जो आज अपने ही समुदाय के लोग से उपेक्षित है। आरक्षित वर्ग के लोगों की लड़ाई लड़ने वाले लोग और आरक्षित वर्ग के अमीर अब यह कतई नहीं कहेंगे कि हमें अपने ही समुदाय के गरीबों को आगे लाना चाहिए। बल्कि सब को अपनी राजनीतिक महत्त्वकांक्षा पूरी करनी है, तभी उग्र भाषणों का सहारा लेते हैं।
ये लोग कभी जमीन स्तर पर तो आए नहीं। कभी इन्होंने उन दूर—दराज के आरक्षित वर्ग के लोगों के बीच में जाने के सौभाग्य ही नहीं मिला जो आरक्षित होते हुए भी अपने ही समुदाय के अमीर लोगों के स्वार्थी हितों के कारण आगे नहीं आ सके। अपने ही लोगों के अधिकारी और नेताओं के परिवारों को ही आरक्षण का बार—बार फायदा उठाने के कारण उन्हें आज भी गरीबी का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
विरासत में मिले हुए अधिकारों को न त्याग पाना, किसी एक जाति या धर्म के लोगों की आदत नहीं, बल्कि यह हर जाति या धर्म के लोगों के खून में बसा है। कोई भी नहीं त्यागता विरासत में मिली सम्पदा और सुविधाओं को, यह वजह है जो आरक्षित वर्ग के लोग आरक्षण का फायदा शुरूआत में ले चुके हैं उनके ही परिवार के लोग और रिश्तेदार सरकार की उन सुविधाओं का फायदा पहुंचा रहे हैं। आरक्षित वर्ग का व्यक्ति अपने बेटे—बेटियों को अपने ही समुदाय के गरीबों से ज्यादा तज्जवो दे रहे हैं और उन्हें नौकरी लगवाने के लिए हर हथकंड़े अपना रहे हैं।
आरक्षित वर्ग में भी अब दो वर्ग बन गए हैं एक अमीर और दूसरा गरीब। इसे भले ही कोई स्वीकार कर या न करें, लेकिन जमीन स्तर पर यह एक सत्य है। ऐसा पूर्व काल में भी सवर्ण जातियों के साथ हो चुका है, जिन अधिकार सम्पन्न और अमीर सवर्णों ने एशोआराम किया था, उस दौर में गरीब सवर्ण भी थे जो अपनी ही जातियों से उपेक्षित थे। वे आज भी गरीब और उपेक्षिति की जिंदगी जी रहे हैं।
अब आरक्षित वर्ग का आर्थिक सम्पन्न वर्ग के लोग भले ही बाबा साहेब का गुणगान खूब करता हो, लेकिन उनकी तरह त्याग करने से डरते हैं। वे अपने ही समुदाय के गरीब लोगों को आगे लाने के लिए खुद त्याग नहीं करते हैं। हां, आज के पढ़—लिखे लोग और राजनीतिक लोग इतना जरूर बढ़—चढ़कर करते हैं जिससे उन लोगों को लगे कि वे उनके हक के लिए लड़ रहे हैं। ऐसे लोग सवर्णों के खिलाफ जहर उगल में पीछे नहीं रहते।
अगर कोई कहे कि राजतंत्र में निम्न वर्ग के शोषण में पूरे सवर्ण जातियां जिम्मेदार थी, तो शायद यह गलत है क्योंकि कोई जाति वाला अपनी ही जाति के गरीब लोगों की कोई मदद नहीं करता है। यह प्राचीन काल से ही है पहले भी हर जातियों में गरीब होते थे, आज भी गरीब होते हैं। अधिकार चंद लोगों तक सीमित रहते हैं।
आज के समय में भारत में आरक्षण को लेकर इतने भड़काउ भाषण आते हैं जिनसे तो यही प्रतीत होता है कि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षी लोग परिस्थितियों का विश्लेषण किए बगैर उकसाने वाले भाषण दे देते हैं। जबकि हमें चाहिए कि हर धर्म, समाज एवं जाति के अमीर, राजनीतिक और अधिकार सम्पन्न लोग अपने निजी हित त्याग कर वास्तविक रूप से गरीबों के प्रति त्याग करें। ताकि हर परिवार को मजबूत बनाया जा सके। गरीब, गरीब होता है उसका जाति—धर्म से कोई वास्ता नहीं होता है। क्योंकि अगर होता ही तो वह गरीब क्यों रहता और की तरह एक अच्छी जिन्दगी जी सकता था।
आरक्षण आज को लागू हुए करीब 80 साल होने को है, इसके बाद भी जन हितैषी लोग अपने ही समुदाय के गरीबों को आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं कर सके तो किन्ही जाति या धर्म को दोषी ठहराना गलत होगा। क्योंकि त्याग तो अब आरक्षित वर्ग के अधिकार सम्पन्न लोगों को ही करना होगा, क्योंकि हर क्षेत्र में जो इसका फायदा ले चुका है वे ही लोग नौकरी, उद्योग—धंधों में बहुत आगे आ चुके हैं। जो गरीब है वे बेचारे गरीब हो रहे हैं।
वक्त है मंथन का, न कि अब किसी को देष देने का। वक्त है अपनों के लिए त्याग का, न कि भड़काने का। यदि इस देश के सभी वर्गों के अमीर सोच लें तो क्या असंभव है, शायद गरीबी चंद दिनों में दूर हो जाए। परंतु कोई अपनी मेहनत की कमाई किसी को क्यों दे? चलो कोई नहीं कोई दे तो ठीक और न दे तो ठीक, लेकिन अब किसी जाति को किसी अन्य जाति की आर्थिक हालात के लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए जब देश के शोषित वर्ग को आरक्षण दिए 7 दशक से अधिक समय हो गया हो।
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