हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की एक समिति ने भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों को खारिज कर दिया है।
शुरुआत से ही अदालत ने इस मुद्दे पर साजिश के सिद्धांतों को लेकर ज्यादा ध्यान दिया था और उसी की जांच करने के लिए अधिक उत्सुकता दिखाई दी कि कहीं किसी तरह की साजिश रची गई है। जिससे साफ तौर पर शिकायतकर्ता को निष्पक्ष जांच नहीं मिली।
अदालत द्वारा आरोपों को जिस तरह से संभाला गया है एक संस्था के रूप में इसकी अखंडता पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। कोर्ट जैसी संस्था जिस पर सभी को न्याय देने की जिम्मेदारी होती है उसी संस्था की ओर से ऑफिस और कामकाजी जगहों पर यौन शोषण के खिलाफ चल रही मुहिम को गलत मैसेज ही गया है।
इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि इस घटना का खुलासा कैसे हुआ। पिछले महीने 22 न्यायाधीशों को 35 वर्षीय अदालत की पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा एक हलफनामा दायर किया गया। उस हलफनामे में बताया कि रंजन गोगोई ने कैसे उनका शोषण किया और जब महिला ने रंजन गोगोई को रोका तो रंजन गोगोई ने महिला के परिवार को टारगेट करना शुरू कर दिया।
अगले दिन, गोगोई के नेतृत्व में तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने गोगोई के खिलाफ आरोपों पर फैसला सुनाया और इन-हाउस कमेटी के गठन का आदेश दिया गया। गोगोई के खिलाफ आरोपों की निंदा करने के लिए न्यायपालिका के सदस्यों के रूप में एक और जांच का गठन किया गया जिसमें शिकायत के पीछे किसी स्वार्थ या बड़ी साजिश की जांच करने के लिए बनाया गया था।
इन हाउस कमेटी ने जिस तरह इस मामले में काम किया है वो अपने आप में मजाक जैसा ही है। सबसे पहले अगर हम शिकायतकर्ता की बात करें तो यह एक इन-हाउस कार्यवाही नहीं थी लेकिन फिर भी इस पर विशाखा गाइडलाइन के अंतर्गत कार्यवाही नहीं की गई। आपको बता दें कि विशाखा गाइडलाइन वर्कप्लेस या ऑफिसों में होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट के खिलाफ बनाई गई है।
इसलिए यह स्पष्ट नहीं था कि अदालत किस तरह से इस मामले में कार्यवाही करने जा रही थी। इसके अलावा, भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आरोपों से निपटने के लिए इन-हाउस कार्यवाही के नियमों में भी बहुत सी खामियां हैं।
दूसरी ध्यान देने वाली बात यह शिकायतकर्ता को एक वकील द्वारा अपना प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से ही वंचित रखा गया।
तीसरा जब वह प्रक्रिया से हट गई तो समिति ने जांच पूर्व पक्ष के साथ जारी रखने का फैसला किया। चौथा, सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ का एक पत्र, पूर्व-पक्षीय जांच के बारे में गंभीर अयोग्यता व्यक्त करता है उन्होंने चिंता जाहिर की कि समिति का अंत हो चुका है। अंत में समिति ने मिसाल का हवाला देते हुए कहा है कि इसकी रिपोर्ट जनता के लिए खुली नहीं है। इसलिए इसके नतीजे क्यों और कैसे आए यह शायद कभी पता नहीं चला।
कुछ महीने पहले भारत में संस्थाएँ यौन उत्पीड़न पर एक तरह के मूवमेंट के लिए तैयार लग रही थीं। जैसा कि #MeToo आंदोलन ने उद्योगों और व्यवसायों में होने वाले हैरेसमेंट के खिलाफ आवाज उठाने के लिए लोगों को एक नई उम्मीद दी। और इस साहस में कई बड़े उद्योगपति, राजनेता, फिल्मी कलाकारों के खिलाफ खुलकर लोग सामने आए।
आरोप प्रत्यारोप शिकायतकर्ता पर भी लगाए गए। शिकायतकर्ता को बी कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई। जिस तरह से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आरोप खारिज किए गए हैं उससे लगता है कि इस तरह की प्रतिक्रिया में अभी भी संस्थागत समर्थन मौजूद है।
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