कुछ जनप्रतिनिधि मौका परस्त होते हैं और उनकी सोच भांप लेती है कि अब किस राजनीतिक पार्टी का दामन थाम लेना चाहिए, ताकि चुनाव जीतकर शासन सत्ता का सुख भोग सके। ऐसा ही हो रहा दिल्ली के विधानसभा चुनावों में। आज के दौर में चुनाव प्रक्रिया भी ऐसा ही रूप धारण करती जा रही है, जैसे किसी राजतंत्र में या मुगल साम्राज्य के दौरान उत्तराधिकार को लेकर हुए संघर्ष। उस समय भी प्रबुद्ध वर्ग अपने—अपने चहेतों को पक्ष लेते नजर आते थे। ताकि शासन सत्ता में उन्हें भी बड़ा पद मिल सके।
वही आज के समय में हो रहा शासन सत्ता अपने चाहने वालों के हाथों आ सके और सत्ता में कोई बड़ा पद मिल सके। सच है जनता जानती सब कुछ है, फिर चाहे तो राजनीतिक दल बदल लो। फिर आज के दौर में जनता के सामने कोई अच्छा विकल्प भी तो नहीं है। नोटा का विकल्प, केवल विकल्प मात्र है उसमें खुद की कोई ताकत नहीं।
हां, दिल्ली की जनता के सामने आम आदमी पार्टी पीछले विधानसभा में एक अच्छा विकल्प था, लेकिन अब वह भी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है जो अन्य राजनीतिक पार्टियां करती हैं। न कोई नीति है न कोई विचारधारा, बस कुछ शेष है तो वह दूसरे की खामियों को गिनाना।
जब पिछली दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए जीत दर्ज की और पहली ही बार में देश की राजधानी में सरकार बना ली। उद्देश्य था वर्तमान राजनीतिक पार्टियों से अलग स्वच्छ छवि की पार्टी और सरकार बनाना। परंतु पार्टी तब नकारात्मकता की ओर बढ़ी जब उसने उन्हीं पार्टियों के साथ, जो भ्रष्टाचार के मामलों में फंसी थी और ऐसे ही आपराधिक छवि वाले नेताओं की जमात में थे, महागठबंधन में शामिल हो गया। एक दृष्टि से यह आप के लिए बहुत ही गलत था क्योंकि आम आदमी पार्टी एक नए उद्देश्य से खड़ी हुई और एक समय केंद्र के खिलाफ भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल जैसे बिलों पर आंदोलन किया।
आप अपनी लीक से हटकर उन्हें चाटुकारों की जमात में शामिल होने लगी और केन्द्र सरकार से बैर मोल लेना शुरू कर दिया, जोकि किसी भी जिहाजे से पार्टी हित में नहीं था। यह सही हो सकता है कि आप सरकार ने दिल्ली में काफी अच्छा काम किया हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह लड़खड़ रही है।
सत्ता का मोह क्या—क्या नहीं करवाता है, यह राजतंत्र के समय से जारी था और अब भी जारी है। राजनीतिक पार्टियां अपने हर प्रतिनिधि को संतुष्ट नहीं कर पाती है। यही वजह है कि नेता लोग दल बदल लेते हैं। भले ही संसद ने इनके लिए नियम बना दिए हो, कोई मायने नहीं रखता। जिसका ताजा उदाहरण दिल्ली विधानसभा में भी देखने को मिला है।
दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान 8 फरवरी को होने हैं। इस चुनाव में कई स्वार्थी नेताओं ने अपनी राजनीतिक पार्टी बदल ली है। कई असंतुष्ट आप और कांग्रेस के कई नेताओं ने बीजेपी का दामन थाम लिया। जिनमें आप युवा मोर्चा के अध्यक्ष अतुल कोहली, आप महिला शाखा की विजय लक्ष्मी, जैसमीन पीटर और कांग्रेस के पंकज चौधरी बीजेपी में शामिल हुए। वहीं आप के विधायक आदर्श शास्त्री ने कांग्रेस पार्टी जॉइन कर ली। यहीं नहीं आप के 15 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी।
वहीं आप विधायक अल्का लांबा ने भी वक्त की नजाकत देखते हुए और कांग्रेस पार्टी के कई राज्यों में मिले बहुमत से एक बार फिर पार्टी जॉइन कर ली है। इससे पहले वह आम आदमी पार्टी की विधायक रही। इस तरह पार्टी बदलना तो सिर्फ शासन सत्ता का सुख भोगना मात्र ही है। जनता के प्रति या किसी एक विचारधारा के अनुसार कार्य करने का उद्देश्य यहां नजर नहीं आता है।
ऐसे नेताओं के चलते किसी पार्टी के युवाओं को मौका बहुत ही कम मिलता है। न किसी विधायक या सांसद की कोई योग्यता निश्चित है, न उम्र निश्चित है। कोई कितने ही बार चुना जाए, क्षेत्र का विकास वैसा ही बना रहता है। कई दिग्गज चाटुकार तो 7—8 बार से अजेय बने हुए हैं। इस प्रकार के नकारात्मक महत्त्वाकांक्षी लोगों के चलते योग्य उम्मीदवार आगे नहीं आ पाते हैं। किसी भी युवा को मौका नहीं बस जनता तो तब याद आती है जब नई सरकार चुननी हो।
दिल्ली विधानसभा में ही नहीं, बल्कि देश में भी युवाओं को मौका दे ऐसी पार्टियों का समर्थन देश के मतदाताओं को करना चाहिए। यह भी मांग होनी चाहिए कि नोटा का अधिक ताकतवर बनाए, योग्यता निश्चित की जाए, जन प्रतिनिधि बनने के अवसरों को भी निश्चित किया जाए। अब देखना है जनता क्या उसी गुलाम मानसिकता से मतदान करेगी या कुछ बदलाव की आवाज उठाएगी।
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