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मैथिलीशरण गुप्त: यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे

‘जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर…

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