Supreme Court sought a response to 14 day of segregation for health workers.
सुप्रीम कोर्ट ने अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) के मामले में अहम फैसला देते हुए कहा कि अग्रिम जमानत में हमेशा समय की बाध्यता तय होना जरूरी नहीं है। जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि अग्रिम जमानत के लिए किसी निश्चित समय सीमा का दायरा नहीं होना चाहिए। ये जमानत सुनवाई खत्म होने तक भी जारी रह सकती है। हालांकि कोर्ट ने कहा कि इसे देने वाली अदालत को केस की परिस्थितियां देखते हुए जरूरी लगे तो वह समयसीमा तय कर सकती है। इस फैसले को सुनाने वाली पीठ में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, इन्दिरा बनर्जी, विनीत सरन, एमआर शाह और एस रविन्द्र भट्ट आदि शामिल थे।
इस पीठ ने अग्रिम जमानत की समयसीमा के बारे में संविधान पीठ को भेजे गए कानूनी प्रश्नों का जवाब लिखते हुए अपने फैसले में कहा है कि सीआरपीसी की धारा 438 (अग्रिम जमानत – गिरफ्तारी से संरक्षण) के तहत मिला संरक्षण हमेशा किसी तय समयसीमा का नहीं होता।
जहां सामान्य जमानत किसी गिरफ्तार व्यक्ति को दी जाती है, वहीं अग्रिम जमानत के माध्यम से किसी शख्स को गिरफ्तारी से पहले ही रिहाई दे दी जाती है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, (Code of Criminal Procedure – CrPC) 1973 में अग्रिम जमानत का जिक्र है।
धारा 438 की उप-धारा (1) में प्रावधान है कि – ‘जब किसी शख्स के पास किसी गैर जमानती अपराध में गिरफ्तार होने का वैध कारण हो, उस परिस्थिति में वह उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिए अपील कर सकता है। अगर अदालत को उचित लगे, तो वह निर्देश दे सकती है कि संबंधित मामले में गिरफ्तारी की स्थिति आने पर वह शख्स जमानत पर छूट जाएगा।’ इसे देने का अधिकार केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय के पास ही है।
अग्रिम जमानत की अपील स्वीकार करते समय उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय सीआरपीसी धारा 438 की उप-धारा (2) के अनुसार, ये शर्तें लागू कर सकता है –
सीआरपीसी में अग्रिम जमानत का प्रावधान वर्ष 1973 में जोड़ा गया, जब वर्ष 1898 की पुरानी संहिता को परिवर्तित किया गया था। वर्ष 1969 में 41वें विधि आयोग की रिपोर्ट में की गई सिफारिश के बाद यह प्रावधान जोड़ा गया था।
इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि- ‘अग्रिम जमानत दिए जाने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि कई बार प्रभावशाली लोग खुद को बचाने के लिए अपने विपक्षी को फर्जी मुकदमों में फंसा देते हैं। इसके अलावा दूसरी वैध वजह है कि किसी अपराध में दोषी व्यक्ति हमेशा फरार होने या जमानत का गलत फायदा उठाने की ही कोशिश नहीं करता। इसिलए उसे पहले हिरासत में लेकर, कुछ दिन जेल में रखकर फिर जमानत के लिए अपील करने का प्रावधान उचित साबित नहीं होता।’
कोर्ट ने फैसले में यह भी स्पष्ट किया है कि अग्रिम जमानत किसी भी तरह से पुलिस के जांच करने के अधिकार को सीमित नहीं करती। कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त के जमानत की शर्तो का उल्लंघन करने जांच प्रभावित करने या सहयोग न करने आदि की स्थिति में पुलिस को अदालत के पास जाकर अग्रिम जमानत या जमानत रद कर गिरफ्तारी की इजाजत मांगने का अधिकार है। पुलिस या जांच एजेंसी की अर्जी पर अपीलीय अदालत या उच्च अदालत अग्रिम जमानत की समीक्षा कर सकती है और उसे रद भी कर सकती है।
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