उच्चतम न्यायालय ने याचिका दायर करने में देरी पर उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए 15 हजार रुपये का जुर्माना लगाया है। सुप्रीम कोर्ट ने 1006 दिन बाद अपील दायर करने पर कहा, समय-समय पर दी जा रही चेतावनियों को राज्य सरकारें अनसुना कर रही हैं। जस्टिस एसके कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, देरी में दोषी अधिकारियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की जाती और उन्हें बचाने के मकसद से न्यायपालिका का समय बर्बाद करने के लिए विशेष अनुमति याचिका दायर की जाती हैं।
जस्टिस कौल की पीठ ने याचिका खारिज करते हुए कहा, हमारे पास ऐसे मामलों से निपटने का अवसर है जिसे हमने ‘सर्टिफिकेट केस’ कहा है, उनमें राज्य सरकारें सिर्फ खारिज होने का प्रमाण पत्र लेने के लिए अदालत में आने में सावधानी बरतें। अगर याचिकाकर्ता (सरकार) को लगता है कि विधानमंडल द्वारा निर्धारित अवधि पर्याप्त नहीं है तो सरकार को चाहिए कि वे विधानमंडल को कानून में बदलाव करने के लिए राजी करे। जब तक कानून है, यह लागू रहेगा।
बता दें कि राज्य सरकार ने यह याचिका श्रम अदालत के पांच नवंबर, 2009 के आदेश के खिलाफ दायर की थी। श्रम अदालत ने बेलदार/ चौकीदार प्रेमचंद के हक में फैसला दिया था। प्रेमचंद ने दावा किया था कि वह कंपनी में एक अगस्त, 1985 को नियुक्त हुए थे और 30 अप्रैल, 1987 तक लगातार काम किया। कंपनी ने उन्हें बिना कानूनी प्रक्रिया का पालन किए नौकरी से निकाल दिया था, जिसे उन्होंने श्रम अदालत में चुनौती दी थी। वर्ष 2017 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने 1006 दिन बाद याचिका दायर थी और 235 दिन की देरी के बाद फिर से इसे दायर किया।
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पीठ ने अपने आदेश में कहा कि कोर्ट ने न्यायपालिका का समय बर्बाद करने पर राज्य सरकार पर जुर्माना लगाया है। लिहाजा सरकार को यह जुर्माना देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों से वसूलना चाहिए। पीठ ने कहा, मामले में तथ्यों को इतने जटिल तरीके से पेश किया गया है ताकि सुनवाई चलती रहे। तथ्य यह है कि श्रम विवाद का यह मामला ट्रिब्यूनल के समक्ष दो दशक तक चला जो अपने आप में न्याय का मज़ाक है।
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