भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम योगदान देने वाली प्रसिद्ध महिला क्रांतिकारी शांति घोष की आज 107वीं जयंती है। उन्होंने सुनीति चौधरी के साथ मिलकर भगत सिंह की फांसी का बदला लेने के लिए त्रिपुरा में कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट (अंग्रेज अधिकारी) की हत्या कर दी थी। ताज्जुब की बात ये है कि उस समय उनकी उम्र महज़ 15 वर्ष ही थी। शांति घोष को आज़ादी के लिए चलाए गए सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने के लिए जाना जाता है। इस ख़ास अवसर पर जानिए उनके प्रेरणादायी जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
क्रांतिकारी महिला शांति घोष का जन्म 22 नवंबर, 1916 को बंगाल प्रांत के कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता देबेंद्र नाथ घोष मूलत: बारीसाल जिले के रहवासी थे व कोमिला के विक्टोरिया कॉलेज में प्रोफेसर थे। देबेंद्रनाथ एक प्रखर राष्ट्रवादी और दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। उनके पिता के देश प्रेम ने ही शांति को बचपन में काफी प्रभावित किया।
जब वे आगे की पढ़ाई के कॉलेज पहुंची, तो कॉलेज की अपनी एक सीनियर प्रफुल्लनलिनी ब्रह्मा के जरिये युगांतर पार्टी नामक क्रांतिकारियों के संगठन के संपर्क में आईं। शांति घोष देश की आज़ादी के लिए कुछ करने का स्वप्न इस दौरान ही देखने लगीं। इसी बीच हुए एक छात्र सम्मलेन ने शान्ति और उनकी जैसी अन्य युवा लड़कियों को देश के लिए की जाने वाली गतिविधियों को नयी ऊर्जा दीं।
वर्ष 1931 में शांति घोष गर्ल्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन की संस्थापक सदस्य थी और वे इसकी सचिव भी रहीं। जब शांति घोष फजुनिस्सा गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी, तब उनकी ही सहपाठी प्रफुल्लनलिनी के संपर्क में आकर वे क्रांतिकारी संगठन ‘युगांतर’ में शामिल हो गईं। संगठन ने उन्हें क्रांतिकारियों की तरह ही प्रशिक्षण दिया। उन्होंने तलवार, लाठी चलाने और आग्नेयास्त्रों से आत्मरक्षा का प्रशिक्षण लिया। युगांतर एक क्रांतिकारी संगठन था, जो ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर ब्रिटिशराज में भय फैलाना चाहता था, ताकि देश को जल्द से जल्द आज़ाद कराया जा सके।
जब शांति घोष क्रांतिकारी प्रशिक्षण में दक्ष हो गई तब 14 दिसंबर, 1931 को उन्हें सुनीति चौधरी के साथ एक बड़ी जिम्मेदारी दी गईं। उस समय उनकी उम्र महज़ 15 साल और सुनीति की उम्र सिर्फ़ 14 साल थीं। इन दोनों युवा क्रांतिकारियों के कंधों पर एक ब्रिटिश नौकरशाह और कोमिल्ला जिले के मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस को मौत के घाट उतारने का जिम्मा था। इन्होंने यह काम बड़ी चतुराई के साथ बखूबी अंजाम दिया।
हालांकि, इस घटना के बाद इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया था। इन पर फरवरी, 1932 में कलकत्ता अदालत में मुकदमा चला और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गईं। लेकिन वे दोनों ही इस सज़ा से निराश थी, वजह ये थी कि उन्हें फांसी की सज़ा नहीं दी गई थी। इस तरह ये दोनों क्रांतिकारी महिलाएं देश के लिए अपनी शहादत नहीं दे पाईं। बाद में शांति घोष को जेल में अपमान और शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ा और उन्हें ‘दूसरे दर्जे का कैदी’ भी माना गया। वर्ष 1939 में उन्हें कई राजनीतिक कैदियों के साथ जेल से रिहा कर दिया गया।
जेल से रिहाई के बाद शांति घोष ने पुन: अपनी पढ़ाई बंगाली महिला कॉलेज में प्रवेश लेकर शुरू कर दी थी। इस दौरान ही वे भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ी गईं। हालांकि, बाद में शांति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गईं। वर्ष 1942 में शांति घोष ने चटगांव के एक क्रांतिकारी और प्रोफेसर चितरंजन दास से शादी कीं। शांति ने वर्ष 1952–62 और 1967-68 तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद में अपना योगदान दिया। वे वर्ष 1962-64 तक पश्चिम बंगाल विधानसभा की सदस्य भी रहीं। उन्होंने ‘अरुण बहनी’ नामक आत्मकथा लिखी व उसे प्रकाशित भी किया।
महान भारतीय महिला क्रांतिकारी शांति घोष का 28 मार्च, 1989 को निधन हो गया।
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