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राजद्रोह, मानहानि और अफस्पा….इन 3 कानूनों को समझिए जिनका जिक्र कांग्रेस मेनिफेस्टो में है

कांग्रेस ने मंगलवार को 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी का घोषणा पत्र जारी किया। घोषणापत्र में सेडिशन, मानहानि और AFSPA जैसे कानूनों को हटाने या संशोधन करने का वादा किया। यहां हम इन तीन कानूनों पर चर्चा करेंगे और जानने की कोशिश करते हैं कि क्या जमीनी तौर पर यह हो सकता है।

राजद्रोह (सेडिशन)

कांग्रेस की स्थिति – हटाना

भारतीय दंड संहिता की धारा 124 A में सेडिशन यानि राजद्रोह को एक गैर-जमानती अपराध माना जाता है, जिसके तहत तीन साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है।

भारत में जनता की चुनी हुई सरकार के प्रति शब्दों द्वारा, लिखित या संकेतों द्वारा या फिर किसी अन्य तरीके से घृणा या नफरत फैलाने पर यह धारा लगाई जाती है जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है या तीन साल का कारावास तक दोनों हो सकते है।

1870 में इसकी शुरुआत के बाद से, राजद्रोह शब्द को अलग-अलग मायनों में समझा गया। पहले, इसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने राष्ट्रवादी नेताओं को निशाना बनाने के लिए किया था। इसी कानून के तहत दो बार बाल गंगाधर तिलक को 1908 से 1914 के बीच म्यांमार में 5 साल कैद की सजा सुनाई। महात्मा गांधी पर यंग इंडिया में उनके लेखों के आरोप में राजद्रोह का केस चलाया गया।

आजादी के बाद, इस विषय पर संविधान सभा में चर्चा हुई, इसके कई सदस्यों पर स्वयं उस धारा के तहत आरोप लगाए गए। फिर भी, यह धारा लागू रही।

1962 में, सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी संवैधानिकता को बरकरार रखा। उस समय केदार नाथ मामले में मुख्य न्यायाधीश बीपी सिन्हा ने कहा कि “हर राज्य की सरकार के पास उन लोगों को दंडित करने की शक्ति होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थिरता को खतरे में डालते हैं, या उनका प्रसार करते हैं। इस तरह की भावनाएँ राज्य को विघटन या सार्वजनिक अव्यवस्था की ओर ले जा सकती है।”

तब से, देश की अदालतों ने बार-बार देखा कि इस धारा का उपयोग सरकार की आलोचना को रोकने के लिए नहीं किया जा सकता है, और इसे केवल सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। फिर भी, लगातार सरकारों ने इसका दुरुपयोग किया। 2012 में अन्ना हजारे के विरोध प्रदर्शन के दौरान भ्रष्टाचार विरोधी कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर यह धारा लगाई गई। वर्तमान में सरकार ने जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य पर भी राजद्रोह का केस चलाया।

मानहानि

कांग्रेस की स्थिति – हटाना

भारत उन कुछ देशों में से एक है जहां मानहानि एक सिविल और क्रिमिनल दोनों तरह का अपराध माना जाता है। क्रिमिनल ऑफेंस माने जाने पर यह जमानती या फिर दो साल तक के कारावास के साथ दंडनीय है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 499 के अनुसार: “जो कोई भी, शब्दों के द्वारा या तो बोलने से किसी भी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाता है उस दौरान यह धारा लगाई जाती है। इस कानून में लिखित में किसी तरह की मानहानि या बोलने पर मानहानि होने पर अलग-अलग तरह के दंड हैं।

अगर आईपीसी से इसे हटा दिया जाता है, तो मानहानि फिर एक क्रिमिनल ऑफेंस नहीं रहेगा। यह तब एक गलत या अत्याचार के रूप में जारी रहेगा, जो भारत में कानून द्वारा निर्धारित नहीं है और न्यायाधीश द्वारा बनाए गए कानूनों के द्वारा निर्देशित है। यहां तक कि अमेरिका में, निजी और राजनीतिक मानहानि के बीच अंतर किया गया है।

सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पा)

कांग्रेस की स्थिति – संशोधन

कांग्रेस ने घोषणापत्र में कहा है कि सुरक्षा बलों की शक्तियों और नागरिकों के मानवाधिकारों के बीच एक संतुलन बिठाया जाएगा। अफस्पा कानून के मुताबिक अशांत क्षेत्रों में सशस्त्र बलों के सदस्यों को कुछ विशेष शक्तियां दी जाती है।

1958 में उत्तर-पूर्व के लिए और 1990 में जम्मू-कश्मीर के लिए इस कानून को लागू कर सशस्त्र बलों को “अशांत क्षेत्रों” को नियंत्रित करने के लिए कुछ विशेष अधिकार दिए गए जो सरकार द्वारा बताए जाते हैं और यह माना जाता है कि यह क्षेत्र इस तरह से अशांत है या खतरनाक स्थिति में है।

इसके प्रावधानों के तहत, सशस्त्र बलों को बिना वारंट के आग लगाने, कहीं जाने और बिना वारंट के किसी की तलाश करने और किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार दिया गया है, जिस पर मुकदमा चलाने से माहौल सही किया जा सके।

वर्तमान में, AFSPA जम्मू और कश्मीर, असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर के कुछ हिस्सों में लागू किया गया है। 2015 में त्रिपुरा AFSPA मुक्त हो गया और 2018 में केंद्र ने मेघालय को भी इस लिस्ट से हटा दिया जबकि अरुणाचल प्रदेश में इसके उपयोग को भी प्रतिबंधित कर दिया।

भारत और विदेश दोनों में आलोचकों ने AFSPA के तहत काम करने के लिए सरकारी एजेंसियों की आलोचना की है। AFSPA के विरोध में मणिपुरी कार्यकर्ता इरोम शर्मिला 16 साल तक भूख हड़ताल पर थीं। 2004 में गठित जीवन रेड्डी समिति ने कानून को पूर्ण रूप से निरस्त करने की सिफारिश की थी।

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