ये हुआ था

सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं में शिक्षा की ज्योति जगाने के लिए किया था आजीवन संघर्ष

अंग्रेजी मैय्या, अंग्रेजी वाणई शूद्रों को उत्कर्ष करने वाली पूरे स्नेह से।
अंग्रेजी मैया, अब नहीं है मुगलाई और नहीं बची है अब पेशवाई, मूर्खशाही।
अंग्रेजी मैया, देती सच्चा ज्ञान शूद्रों को देती है जीवन वह तो प्रेम से।
अंग्रेजी मैया, शूद्रों को पिलाती है दूध पालती पोसती है माँ की ममता से।
अंग्रेजी मैया, तूने तोड़ डाली जंजीर पशुता की और दी है मानवता की भेंट सारे शूद्र लोक को।

ये पंक्तियां भारत की पहली महिला शिक्षिका का दर्जा प्राप्त सावित्रीबाई फुले लिखी हैं। सावित्रीबाई फुले की आज 10 मार्च को 126वीं पुण्यतिथि है। एक महान समाज सेविका व क्रांतिज्योति के रूप में पहचान रखने वाली सावित्री बाई पेशवा शासन की विरोधी थीं। उस दौर में जब अंग्रेजी को बहुत बड़ा तबका शोषक मानता था, तब सावित्रीबाई इसकी हिमायती थीं। वे इसे एक अच्छी भाषा के तौर पर देखती थीं। सावित्रीबाई फुले अंग्रेजी को एक ऐसा जरिया मानती थी जो शि​क्षा के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान दे सकती थी। वे पेशवा शासन की बजाय अंग्रेजी शासन को अच्छा माना करती थीं, क्योंकि तब ख़ासकर महिलाओं और दलितों को शिक्षा के लिए पर्याप्त व्यवस्था व सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी। इस अवसर पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

महज 17 साल की उम्र में बनी स्कूल की प्रिंसिपल

समाज सुधारक व शिक्षाविद् सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। उनका ज्योतिबा फुले से बाल विवाह हुआ था। ज्योतिबा के सहयोग से सावित्रीबाई ने पाश्चात्य शिक्षा हासिल की और मात्र 17 साल की उम्र में ही ज्योतिबा फुले द्वारा खोले गए लड़कियों के एक स्कूल की शिक्षिका और प्रिंसिपल बनीं।

सावित्रीबाई फुले ब्राह्मणवाद की ख़ासी विरोधी थी। उनके अनुसार, अंग्रेजों ने हमें गुलाम नहीं बनाया बल्कि ब्राह्म्णों ने जातिवाद फैलाकर शूद्रों को गुलाम बना रखा है। जब अंग्रेजी शासकों का विरोध हो रहा था, तब फुले ने ब्राह्म्णों के खिलाफ काफी कुछ लिखा। उनके लेखन का प्रभाव लंबे समय तक देखने को मिलता है।

वे चाहती थीं कि शूद्र शिक्षित हों और मेहनत करके आगे बढ़ें। इसलिए उनके लिए उन्होंने लिखा:

स्वाबलंबन का हो उद्यम, प्रवृत्ति ज्ञान-धन का संचय करो मेहनत करके
बिना विद्या जीवन व्यर्थ पशु जैसा निठल्ले ना बैठे रहो करो विद्या ग्रहण
शूद्र-अतिशूद्रों के दुख दूर करने के लिए मिला है कीमती अवसर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने का।

उस दौर में अंग्रेजी शिक्षा को अहम मानने वाली सावित्रीबाई फुले जानती थीं कि आने वाले समय में यह सर्वव्यापी भाषा होगी और हर तबके लिए फायदेमंद होगी। यह शायद उनकी दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने काफी जल्दी इस बात को समझ लिया था। 10 मार्च, 1897 को सावित्रीबाई फुले का पुणे में निधन हो गया था।

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Raj Kumar

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