देश को आज़ादी दिलाने के लिए महज 23 वर्ष की उम्र में बलिदान देने वाले शहीद सरदार भगत सिंह का नाम इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज़ है। भगत सिंह का जन्म 28 सिंतबर, 1907 को ब्रिटिश शासनकाल में तत्कालीन भारत के पंजाब प्रांत के बंगा (अब पाकिस्तान) में हुआ था। बहुत ही कम उम्र में भगत सिंह भारत के लिए वो काम कर के गए, जो आज देश के करोड़ों युवाओं की प्रेरणा है। देशभक्ति के जज्बे से खुद को लबालब करने के लिए भगतसिंह नाम ही काफी है। सिंह ने अंग्रेजों की असेंबली में बम फेंककर तहलका मचा दिया था, जिसके बाद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गईं। आज 28 सितम्बर को क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह की 116वीं जयंती है। इस खास अवसर पर जानिए भारत के महान क्रांतिवीर के बारे में कुछ प्रेरणादायी बातें…
एक दिलचस्प बात ये है कि 3 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने उन्हीं कपड़ो में कश्मीरी गेट के रामनाथ फोटोग्राफर की दुकान पर अपनी तस्वीरें खिचाई थीं, जिन कपड़ों में वो बम फेंकने असेंबली हॉल जाने वाले थे। वो 6 अप्रैल को उन तस्वीरों को लेने दोबारा उस दुकान पर भी गए थे। असेंबली भवन आने से पहले भगत सिंह ने अपनी एक जेब घड़ी अपने एक साथी जयदेव को दे दी थी। इस घड़ी का भी एक इतिहास रहा है। सबसे पहले ये घड़ी ग़दर पार्टी के एक सदस्य ने फ़रवरी 1915 में खरीदी थी। इसके बाद रास बिहारी बोस ने वो घड़ी ‘बंदी जीवन’ के लेखक शचींद्रनाथ सान्याल को दे दी।
सान्याल ने वो घड़ी भगत सिंह को भेंट में दी थी। उस समय सदन में सर जॉन साइमन के अलावा मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, एन सी केल्कर और एम आर जयकर भी मौजूद थे। भगत सिंह को यह अच्छी तरह पता था कि उनके बम इस विधेयक को क़ानून बनने से नहीं रोक पाएंगे। कारण था कि नेशनल असेंबली में ब्रिटिश सरकार के समर्थकों की कमी नहीं थी और दूसरे वायसराय को क़ानून बनाने के असाधारण अधिकार मिले हुए थे।
युवा क्रांतिकारी भगत सिंह ने बम फेंकते समय इस बात का ध्यान रखा कि वो उसे कुर्सी पर बैठे हुए सदस्यों से थोड़ी दूर पर फ़र्श पर लुढ़काएं, ताकि सदस्य उसकी चपेट में न आ सकें। जैसे ही बम फटा ज़ोर की आवाज़ हुई और पूरा असेंबली हॉल अँधकार में डूब गया। दर्शक दीर्घा में अफरातफरी मच गई। तभी बटुकेश्वर दत्त ने दूसरा बम फेंका। दर्शक दीर्घा में मौजूद लोगों ने बाहर के दरवाज़े की तरफ़ भागना शुरू कर दिया।
ये बम कम क्षमता के थे और इस तरह फेंके गए थे कि किसी की जान न जाए। बम फ़ेंकने के तुरंत बाद दर्शक दीर्घा से ‘इंकलाब ज़िदाबाद’ के नारों के साथ पेड़ के पत्तों की तरह पर्चे नीचे गिरने लगे। उसका मज़मून ख़ुद भगत सिंह ने लिखा था। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन पार्टी के लेटरहेड पर उसकी 30-40 प्रतियां टाइप की गईं थीं। हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार दुर्गादास ने अपनी सजगता का परिचय देते हुए वो पर्चा वहां से उड़ा लिया और हिंदुस्तान टाइम्स के सांध्यकालीन विशेष संस्करण में छाप कर सारे देश के सामने रख दिया था।
इस पर्चे का पहला शब्द था नोटिस। उसमें फ़्रेंच शहीद अगस्त वैलां का उद्धरण था कि ‘बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत पड़ती है।’ अंत में कमांडर इन चीफ बलराज का नाम दिया गया था। जैसे ही बम का धुआं छंटा असेंबली के सदस्य अपनी-अपनी सीटों पर लौटने लगे। दर्शक दीर्घा में बैठे हुए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने भागने की कोशिश नहीं की। जैसा कि उनकी पार्टी ने पहले से तय कर रखा था, वो अपनी जगह पर ही खड़े रहे। वहां मौजूद पुलिसकर्मी इस डर से उनके पास नहीं गए कि कहीं उनके पास हथियार न हों।
दरअसल, क्रांतिवीर भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु ने वर्ष 1928 में लाहौर में एक ब्रिटिश जूनियर पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी। भारत के तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने इस मामले पर मुकदमे के लिए एक विशेष ट्रिब्यूनल का गठन किया, जिसने तीनों को फांसी की सजा सुनाई। तीनों को 23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल के भीतर फांसी दे दी गई। इस मामले में सुखदेव को भी दोषी माना गया।
अंग्रेजों द्वारा इन देशभक्तों को गुपचुप फांसी पर लटकाये जाने का देश में खूब हंगामा हुआ। लोगों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ और गुस्सा भर गया। इसकी वजह ये थी कि केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने के जिस मामले में भगत सिंह को फांसी की सजा हुई थी, उसकी तारीख 24 मार्च तय की गई थी। लेकिन इस दिन को अंग्रेजों के उस डर के रूप में भी याद किया जाना चाहिए, जिसके चलते इन तीनों को 11 घंटे पहले ही गुपचुप तरीके से फांसी दे दी गई। फांसी पर जाते समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु तीनों मस्ती से गा रहे थे…
मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे
मेरा रंग दे बसन्ती चोला
माय रंग दे बसंती चोला।।
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के जेल के दिनों के कई किस्से काफी प्रचलित हैं। वो जेल में दुनिया के महान क्रांतिकारियों की किताबें पढ़ा करते थे तो वहीं से देश के नाम उन्होंने कई खत लिखे थे। कहा जाता है कि जब भगत सिंह को फांसी दी जाने वाली थी तो लाहौर जेल की हर आंख रो रही थी। जेल के अधिकारियों के हाथ भारत मां के इस लाल को फांसी देने से पहले कांप रहे थे। आखिरकार फांसी का दिन आया और अंग्रेजों ने अपने नियम अनुसार, सरदार भगत सिंह और उनके अन्य साथियों को पहले नहलाया गया और इसके बाद उन्हें पहनने के लिए नए कपड़े दिए गए।
सरदार भगत सिंह और उनके अन्य साथी जब जल्लाद के सामने आए तो उसने तीनों से आखिरी ख़्वाहिश पूछी, जिस पर तीनों ने कहा कि हम आपस में एक-दूसरे से गले मिलना चाहते हैं। भगत के कई खत आज भी पढ़े जाते हैं, लेकिन उनको फांसी दिए जाने से पहले जो आखिरी ख़त उन्होंने लिखा उसका जिक्र हर जगह मिलता है।
“साथियों स्वाभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं, लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि कैद होकर ना रहूं। मेरा नाम हिन्दुस्तान की क्रांति का प्रतीक बन चुका है, क्रांतिकारी दलों के आदर्शों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता था।
मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह की उम्मीद करेंगी। इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना नामुमकिन हो जाएगा. आजकल मुझे खुद पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है. कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।”
23 मार्च, 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव थापर व शिवराम राजगुरु को फाँसी दी गईं। फाँसी पर जाने से पहले भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जब उनसे उनकी आख़िरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।
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