“जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू”
कुछ नौजवानों को छोड़ दें तो बिहार में लालू यादव के लिए ये नारा हर किसी ने सुना ही होगा। लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। लालू फिलहाल बिहार की राजनीति में नहीं हैं।
ऐसा इसलिए है क्योंकि लालू यादव फिलहाल जेल में है। चुनाव लड़ने और यहां तक कि प्रचार करने से भी उनको रोक दिया गया है। रिपोर्टों से पता चलता है कि लोग उन्हें याद कर रहे हैं। फिलहाल उनके 29 साल के सुपुत्र तेजस्वी यादव लालू की पार्टी को संभाले हुए हैं।
तेजस्वी यादव ने एक बयान में कहा कि कोई उनसे बेहतर संवाद नहीं कर सकता है, किसी के पास ऐसी ऊर्जा नहीं है, जिस ऊर्जा का उपयोग लालू करते हैं। हम उन्हें बहुत याद कर रहे हैं और उन्हें जानबूझकर जमानत देने से इनकार किया जा रहा है। अगर लालू और मैं अभियान कर रहे होते तो काम डिवाइड कर लिए होते।
हालांकि आम चुनावों का फोकस उत्तर प्रदेश पर रहा है जहां 80 सीटे हैं। लेकिन बिहार और भी दिलचस्प हो सकता है क्योंकि इसने एंटी मोदी गठबंधन राजनीति में बढ़त ली है।
2015 में, मोदी की प्रचंड लोकसभा जीत के ठीक एक साल बाद लालू यादव जनता दल (युनाइटेड) के नीतीश कुमार और कांग्रेस के साथ आए और राज्य चुनावों में भाजपा के खिलाफ जीत दर्ज की।
लेकिन यह अंतिम नहीं था। तेजस्वी यादव के बढ़ते प्रभाव से नाखुश मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जहाज से कूद गए और 2017 में भाजपा में वापस चले गए और उनके साथ सरकार बनाई।
कभी महागठबंधन के संभावित उम्मीदवार के रूप में बात करने वाले नीतीश कुमार ने अचानक पाया कि वह 2005 में राज्य में लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं। वह भाजपा गठबंधन के संयोजक नहीं बने। नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस और भगवा पार्टी ने भी उनकी पार्टी के घोषणा पत्र पर रोष जताया।
बिहार में नरेंद्र मोदी की रैली का यह वीडियो खुद ही कहानी कह रहा है। और अफवाहें हैं कि वे महागठबंधन में वापिस आ सकते हैं।
हालांकि, इसके बावजूद भाजपा जिसने अपने सहयोगियों के साथ 2014 के चुनाव में राज्य की 40 सीटों में से 31 सीटें जीती थीं। यह निश्चित रूप से प्रकट करती है कि उसने मतदाताओं का ध्रुवीकरण किया है और राजद-कांग्रेस गठबंधन को अच्छी संख्या में सीटें जीतने से रोका है।
राज्य में NDA ने नीतीश कुमार को 17 सीटें दी हैं। हालांकि जदयू ने 2014 में केवल दो सीटें जीतीं जब वह खुद चुनाव लड़ रही थी। एक अच्छा प्रदर्शन पार्टी को ऊर्जावान कर सकता है जो कभी भी अपने दम पर सत्ता में नहीं आई है और भाजपा और राजद के बीच नीतिश कुमार पिस सकते हैं।
लेकिन जब नीतीश खुद एनडीए में वापसी के बाद शायद अपने कम हो चुके कद को बर्बाद कर रहे हैं, तो बड़ा सवाल यह हो सकता है कि क्या बिहार वास्तव में गतबंधान राजनीति का केंद्र है? सुझाव यह नहीं है कि महागठबंधन जीत जाएगा लेकिन यह है कि भाजपा यहां राजनीतिक, वित्तीय या कूटनीति कितने जोर से लगाती है ताकि अपने विरोधियों को हरा सके।
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