भारत को ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों और शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए अनेक क्रांतिकारी शहीद हुए थे। ऐसे ही क्रांतिकारियों में से एक थे युवा और जोशीले राजगुरु। उनका पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु था। राजगुरु ने देश की आजादी के लिए महज 22 साल की कम उम्र में हंसते-हंसते शहीद भगत सिंह और सुखदेव के साथ फांसी पर चढ़कर अपनी कुर्बानी दे दी थी। उनके इस बलिदान ने देश के लाखों युवाओं को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर उठ खड़ा होने के लिए प्रेरित किया। 24 अगस्त को महान क्रांतिकारी राजगुरु की 115वीं जयंती है। इस ख़ास अवसर पर जानिये उनके प्रेरणादायी जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
अमर शहीद राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को महाराष्ट्र के पुणे जिले स्थित खेड़ (भीमा नदी के किनारे स्थित) में हुआ था। उनकी मां पार्वती देवी और पिता हरिनारायण राजगुरु थे। जब वह छह साल के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया था और परिवार की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई दिनकर पर आ गई थीं।
उनकी प्राथमिक शिक्षा खेड़ में हुईं। बाद में उन्होंने पुणे के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में भी अध्ययन किया था। वह मात्र 12 साल की उम्र में वाराणसी में अध्ययन के लिए गए और संस्कृत में शिक्षा प्राप्त कीं। राजगुरु बचपन से ही निडर व्यक्तित्व वाले थे। उनपर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों का काफी गहरा प्रभाव पड़ा था।
पढ़ाई के समय ही राजगुरु क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। वह चंद्रशेखर आजाद से काफी प्रभावित हुए व उन्होंने इस दौरान ही हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की सदस्यता ग्रहण कर ली। इस संगठन का मकसद था कि भारत किसी भी तरह से ब्रिटिश शासन से मुक्त हो।
संगठन के सदस्यों का मानना था कि महात्मा गांधी द्वारा देश की आजादी का अहिंसात्मक ‘सविनय अवज्ञा’ आंदोलन की अपेक्षा में अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति से देश को जल्द आजाद करवाया जा सकता है। राजगुरु को यहीं पर निशानेबाजी का प्रशिक्षण दिया गया और वह जल्द ही निशानेबाजी में माहिर हो गए। उनकी मुलाकात बाद में भगत सिंह और सुखदेव से हुईं।
अक्टूबर, 1928 में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे भारतीयों पर ब्रिटिश पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया था। इस विरोध प्रदर्शन के दौरान पंजाब में आंदोलनकारियों का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपत राय लाठियों के वार से बुरी तरह जख्मी हो गए थे। इससे उनकी फिर मृत्यु भी हो गई थी। इस पर संगठन के सदस्यों ने घटना को अंजाम देने वाले ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी सॉन्डर्स की हत्या करने की योजना बनाईं। 19 दिसंबर, 1928 को राजगुरु ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक पद पर तैनात अंग्रेज़ अधिकारी जे.पी. सॉन्डर्स की गोली मार कर हत्या कर दी।
इसके बाद भी राजगुरु शांत नहीं बैठे। उन्होंने 28 सितंबर, 1929 को एक गवर्नर की हत्या करने की कोशिश की। लेकिन वह असफल हो गए और अगले दिन उन्हें पुणे में गिरफ़्तार कर लिया गया था। राजगुरु पर ‘लाहौर षड़यंत्र’ केस में शामिल होने का मुक़दमा भी चलाया गया। अदालत में इन क्रांतिकारियों ने स्वीकार किया था कि वे पंजाब में आज़ादी की लड़ाई के एक बड़े नायक लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेना चाहते थे।
‘द ट्रिब्यून’ अखबार के मुख्य पेज पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च, 1931 को फांसी की सजा देने की घोषणा छपी थी। लेकिन इन क्रांतिकारियों को फांसी के विरोध में व्यापक स्तर पर आंदोलन हुए। इसे देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने देश के इन तीनों वीर क्रांतिकारियों को एक दिन पहले ही 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी थी।
फांसी के बाद इन तीनों शहीदों का पंजाब के फिरोजपुर जिले में सतलज नदी के किनारे हुसैनीवाला में अंतिम संस्कार किया गया। फांसी के समय राजगुरु केवल 22 वर्ष के थे। उनकी स्मृति में भारत सरकार ने 22 मार्च, 2013 को एक डाक टिकट जारी किया है।
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