भारत की आजादी में अपना योगदान देने वाले शायर, लेखक, साहित्यकार एवं क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की 11 जून को 126वीं जयंती है। बिस्मिल साहब ने देश को अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था। ब्रिटिश सरकार ने बिस्मिल को महज़ 30 वर्ष की उम्र में अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह के साथ फांसी पर लटकाया। वे ‘मैनपुरी षड्यन्त्र’ और ‘काकोरी-काण्ड’ जैसी कई घटनाओं में सम्मलित थे। रामप्रसाद बिस्मिल हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य भी रहे। इस ख़ास अवसर पर जानिए देश के इस महान क्रांतिकारी के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। इनके पिता मुरलीधर कचहरी में सरकारी स्टाम्प बेचने का काम करते थे। वहीं, इनकी माताजी मूलमति गृहणी थीं। बिस्मिल को छह वर्ष की आयु में स्कूल पढ़ने के लिए भेजा गया। इनके पिता शिक्षा के महत्व को समझते थे, इनकी पढ़ाई पर इसलिए विशेष ध्यान दिया गया। बिस्मिल ने 14 वर्ष की आयु में चौथी कक्षा पास कीं। रामप्रसाद को उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान था, परंतु कुछ कारणवश वह आठवीं कक्षा से आगे पढ़ाई नहीं कर सके।
रामप्रसाद पर स्वामी दयानंद जी की शिक्षाओं का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वह आर्य समाज के सिद्धान्तों का पूरी तरह से अनुसरण करने लगे और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म को मानता था और इनके पिता कट्टर सनातन धर्मी थे। इस बात को लेकर पिता-पुत्र में कलह हो गया और वह कुछ दिनों के लिए घर छोड़कर चले गये।
जब रामप्रसाद बिस्मिल 18 वर्ष के थे, भारत की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी सेनानी भाई परमानन्द को ब्रिटिश सरकार ने ‘ग़दर षड्यंत्र’ में शामिल होने के लिए फांसी की सजा सुनाई, तो इसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वर्ष 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नरम दल के विरोध के बावजूद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की शोभायात्रा निकालीं। इसके बाद उन्होंने कुछ साथियों की मदद से ‘अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित करवाई, जिसे तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया।
रामप्रसाद बिस्मिल ने ब्रिटिश सत्ता से देश को आजाद कराने के लिए ‘मातृदेवी’ नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना कीं। उनकी मदद पंडित गेंदा लाल दीक्षित जी ने की, जिन्होंने बाद में ‘शिवाजी समिति’ नाम की एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की थी। दोनों संगठनों ने मिलकर इटावा, मैनपुरी, आगरा और शाहजहांपुर जिलों के युवकों को देश सेवा के लिए संगठित किया।
जनवरी 1918 में बिस्मिल ने ‘देशवासियों के नाम सन्देश’ नाम का एक पैम्फलेट प्रकाशित किया और अपनी कविता ‘मैनपुरी की प्रतिज्ञा’ के साथ-साथ इसका भी वितरण करने लगे। वर्ष 1918 में उन्होंने अपने संगठन को मजबूत करने और ब्रिटिश सरकार में भारतीयों का खौफ उत्पन्न करने के लिए डकैती भी डाली।
वर्ष 1918 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन के दौरान पुलिस ने उनको और उनके संगठन के दूसरे सदस्यों को प्रतिबंधित साहित्य बेचने के लिए छापा डाला पर बिस्मिल बचने में सफल रहे। पुलिस से मुठभेड़ के बाद उन्होंने यमुना में छलांग लगा दी और तैर कर आधुनिक ग्रेटर नोएडा के बीहड़ जंगलों में चले गए। उधर ‘मैनपुरी षड्यंत्र’ मुकदमे में ब्रिटिश जज ने फैसला सुनते हुए बिस्मिल और दीक्षित को भगोड़ा घोषित कर दिया।
वर्ष 1922 में गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन को वापस लेने से कई क्रांतिकारी नाराज हो गए, जिसके परिणाम स्वरूप बिस्मिल ने अपने नेतृत्व में संयुक्त प्रान्त के युवाओं को संगठित करके क्रान्तिकारी दल का निर्माण किया। गदर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल की सहमति से वर्ष 1923 में पार्टी के संविधान को बनाने के लिये वह इलाहबाद गये। पार्टी की स्थापना और उद्देश्यों के निर्माण में बिस्मिल के साथ-साथ शचीन्द्र नाथ सान्याल, जय गोपाल मुखर्जी आदि शामिल थे।
इस संगठन की पहली बैठक का आयोजन 3 अक्टूबर, 1923 को कानपुर में किया गया। इस सभा में बंगाल प्रान्त के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्र सान्याल को पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। बिस्मिल को शाहजहांपुर जिले के नेतृत्व के साथ ही शस्त्र विभाग का प्रमुख नियुक्त किया गया। सभा में समिति ने सबकी सहमति से पार्टी के नाम को बदल कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोशिएशन (एचआरए) रख दिया। पार्टी के लिए फण्ड एकत्र करने के लिए 25 दिसम्बर, 1924 को बमरौली में डकैती डाली गयी।
संगठन के लिए धन की कमी को पूरा करने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाईं। उनके नेतृत्व में कुल 10 लोगों ने लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन के निकट रेल रोककर 9 अगस्त, 1925 को सरकारी खजाना लूट लिया। 26 सितम्बर, 1925 को बिस्मिल के साथ-साथ 40 से भी अधिक लोगों को ‘काकोरी डकैती’ मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें इस अपराध के लिए फांसी की सजा सुनाई गईं।
काकोरी कांड में गिरफ्तार होने के बाद जब अदालत में सुनवाई चल रही थी, उस दौरान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल ने ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?’ की कुछ पंक्तियां कही थीं।
बिस्मिल कविताओं और शायरी लिखने के काफी शौकीन थे। फांसी के फंदे को गले में डालने से पहले भी बिस्मिल ने ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ के कुछ शेर पढ़े। वैसे तो ये शेर पटना के अजीमाबाद के मशहूर शायर बिस्मिल अजीमाबादी की रचना थी। लेकिन इसकी पहचान राम प्रसाद बिस्मिल को लेकर ज्यादा बन गई।
रामप्रसाद बिस्मिल को अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह के साथ मौत की सजा सुनाई गईं। उन्हें 19 दिसम्बर, 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी पर लटकाया गया।
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