भारत में फिलहाल सभी का ध्यान चुनावों पर है इसी बीच थोड़ा ध्यान सेना द्वारा बताए गए यति के अस्तित्व के प्रमाणों पर चला जाता है। लेकिन जो भूला जा रहा है वो यह है कि तेल की कीमतों में बढ़ोतरी।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अप्रैल में फैसला किया कि वह ईरान को तेल खरीदना जारी रखने के लिए अमेरिकी सहयोगियों को अनुमति देने वाली छूटों का नवीनीकरण नहीं करेंगे। नतीजतन, पिछले हफ्ते तेल की कीमतें 75 डॉलर प्रति बैरल पर आ गईं जो इस हफ्ते थोड़ा कम होकर 73 डॉलर पर आ गई हैं।
यह पिछले साल की तुलना में 30% अधिक है और कीमतों में पिछले छह हफ्तों में लगभग 12% की बढ़ोतरी सामने आई है। फिर भी भारत भर के पेट्रोल पंपों पर कीमतें मुश्किल से बढ़ी हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में पिछले छह हफ्तों में पेट्रोल की कीमतें केवल 47 पैसे लीटर या 0.6% बढ़ी हैं।
याद रखें मौजूदा सरकार ने तेल की कीमतों के प्रति भारत के दृष्टिकोण में सुधार को लेकर काफी कुछ कहा है। इन वादों में कहा गया कि तेल की कीमतों को वैश्विक दर के हिसाब से रखा जाएगा। इस हिसाब से भारत में कीमतें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्यों नहीं बढ़ रही हैं?
जवाब स्पष्ट है, चुनाव। चुनाव अभियान के ठीक बीच में पेट्रोल की कीमतों में भारी उछाल सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए भयानक खबर होगी क्योंकि यह मतदाताओं को निराश कर सकती है। आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलताओं के बारे में लोगों को पता चल सकता है। इसलिए कीमतें कम रखी गई हैं।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पिछले साल, कर्नाटक राज्य में चुनावों के दौरान, पेट्रोल की कीमतों को कसकर नियंत्रित किया गया था। फिर मतदान के बाद के दिनों में कीमतों में तुरंत बढ़ोतरी की गई ताकि तेल विपणन कंपनियां उस समय से कुछ नुकसानों से उबर सके।
विश्लेषकों का सुझाव है कि 23 मई के बाद देश भर में फिर से वही हो सकता है जब लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित किए जाएंगे। अखिल भारतीय पेट्रोलियम डीलर्स एसोसिएशन के कोषाध्यक्ष नितिन गोयल ने कहा कि उपभोक्ता को रिटेल कीमतों में भारी उछाल के लिए तैयार रहना चाहिए।
यह अपने आप में एक गहरा झटका होगा। यह सरकार के इस दृष्टिकोण के खिलाफ जाता है जिसमें सत्तारूढ़ गवर्मेंट कहती आई है कि वो राजनीति के आगे देश हित में काम करेगी।
लेकिन आगे भी एक बड़ी चुनौती है। ट्रम्प ने यह कहकर कीमतों को कम करने का प्रयास किया होगा कि उन्होंने ओपेक से बात की थी जो पेट्रोलियम प्रयोग करने वाले देशों का संगठन है। ट्रंप ने उनसे उत्पादन बढ़ाने के लिए कहा होगा। लेकिन ऐसा लगता है कि ओपेक जो फिलहाल अपने उत्पादन में कटौती कर रहा है तुरंत अपनी स्थिति नहीं बदलेगा।
इसका मतलब है कि बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की समस्या, कृषि संकट, जुड़वां-बैलेंस शीट की समस्या, खराब कॉर्पोरेट आय, निजी पूंजीगत व्यय की कमी और खराब मानसून के खतरे के अलावा, जो भी पार्टी जून में सत्ता में आएगी उसे तेल की बढ़ी कीमतों का सामना करना होगा।
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