फैज़ अहमद फैज़ की ये लाइनें आज के हालातों को काफी अच्छे से बयां करती हैं। सोशल मीडिया के जमाने में ये लाइनें कुछ ज्यादा ही कारगर होती हैं। फैज़ अहमद के नगमें ऐसे जैसे मुर्दों में जान डाल दे। आज यानि 13 फरवरी को ही ये शख्शियत इस दुनिया में आई। मगर फैज़ अभी भी जिंदा हैं अपने नगमों में, अपनी शायरियों में, अपनी जिंदादिली में , अपनी उस कहानियों में। फैज़ सबके थे, फैज़ सबके हैं।
नगमों और शायरी के गलियारों में बैठे हुज़ूम का दिल आज भी फैज़ के पास आकर ही ठहरता है। उनकी जैसी शायरी लिखना ना आसान है और ना ही उनके लिए आसान थी। इसके लिए उन्हें दो बार जेल तक भेजा गया था।
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां, जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
दबे कुचलों को सुनकर शायरी में उनके दर्द को जाहिर करना फैज़ का हुनर था। पाकिस्तान में रहते हुए भी उन्होंने सरहदों को कुछ ना समझा। उनके नगमें, शायरियां हमेशा ही सरहदों को आंख दिखाने वाली थीं।
जो बेड़ियों को तोड़ना चाहते हैं, इश्क करना चाहते हैं, फैज़ को हमेशा वहां पाते हैं। फैज़ ऐसे थे जिसे पढ़ा जा सकता था, गाया जा सकता था और लोगों को बयां किया जा सकता है।
ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़मे-दिल
इश्क़ को एक नई आवाज़ फैज़ की शायरियों ने दी। फैज़ वक्त़ को महसूस करते थे फिर उन्हें कागज पर उतार देते थे। जैसा वे लिखते थे उनकी जिंदगी भी काफी शायराना रही। उस वक्त फैज़ अमृतसर में थे जहां उनकी मुलाकात एलिस से हुई। पहली मुलाकात में ही दोनों अपना दिल हार बैठे। 1941 में एलिस हमेशा के लिए फैज़ की हमसफर बन गई।
फैज़ को हमेशा इश्क मिजाज़ वाला शायर माना जाता है लेकिन वे यहीं तक सिमटे हुए नहीं थे। उन्हें क्रांतिकारी शायर के रूप में देखा जाता है। इसीलिए शायद उन्होंने लिखा था-
‘और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’
फैज़ का सफर सफर नहीं कहानियों का एक हुजूम था। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी चुना गया था। फैज़ की शायरियां हमेशा साथ रहती हैं।
‘ग़ुबार-ए-अय्याम’ उनकी आखिरी शायरी थी। फैज़ को याद किया जा रहा है, फैज़ को याद किया जाएगा। यूं हीं, सदा। जाते जाते फैज़ का ये आखिरी नगमा जरूर गुनगुनाएं-
हम मुसाफ़िर यूं ही मसरूफ़े सफ़र जाएंगे
बेनिशां हो गए जब शहर तो घर जाएंगे
किस क़दर होगा यहां मेहर-ओ-वफ़ा का मातम
हम तेरी याद से जिस रोज़ उतर जाएंगे
जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ारे-सुख़न
हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएंगे
नेमते-ज़ीस्त का ये करज़ चुकेगा कैसे
लाख घबरा के ये कहते रहें मर जाएंगे
शायद अपना ही कोई बैत हुदी-ख़्वां बनकर
साथ जाएगा मेरे यार जिधर जाएंगे
‘फ़ैज़’ आते हैं रहे, इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम
आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएंगे
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