भारत को आजाद करवाने के लिए सैकड़ों वीरों और सेनानियों ने अपनी जान की बाजी लगाई, उन महान लोगों में एक नाम खान अब्दुल गफ्फार खान का भी था। आजादी के मतवालों के बीच अंग्रेजों के खिलाफ अब्दुल साहब ने भी आखिर तक जंग लड़ीं। पश्तून नेता के रूप में पहचान रखने वाले मुखर धार्मिक और राजनीतिक अंदाज वाले ‘भारत रत्न’ से सम्म्मानित अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फरवरी, 1890 को उस वक़्त के भारत की पेशावर वैली (अब पकिस्तान) में उत्मानज़ई गांव के एक पश्तून परिवार में हुआ था। गफ्फार खान साहब आजीवन महात्मा गांधी के अहिंसा के रास्ते पर चले।
खान अब्दुल गफ्फार खां को लोग ‘बच्चा (बाचा) खान’ नाम से भी जानते हैं। वहीं, महात्मा गांधी के एक दोस्त उन्हें ‘फ्रंटियर गांधी’ कहकर भी बुलाते थे। आज सीमान्त गांधी यानि अब्दुल साहब की 133वीं जयंती है। इस अवसर पर जानिए अंग्रेजी शासन की नाक में दम करने वाले इस महान क्रांतिकारी के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
खान अब्दुल गफ्फार खां शुरू से ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोही प्रवृति के रहे। वर्ष 1929 में अब्दुल साहब ने खुदाई खिदमतगार (सर्वेंट ऑफ गॉड) आंदोलन का बिगुल बजाया। खुदाई खिदमतागर, गांधी जी के सभी अहिंसा आंदोलनों की राह पर था। इस आंदोलन से अंग्रेजी हुकूमत हिल गईं और अंग्रेज शासक झल्ला उठे, जिसके बाद बाचा खान को जेल में डालकर उन्हें कई यातनाएं दी गईं।
जब आजादी के समय हिंदुस्तान के बंटवारे की बात उठी तब खान अब्दुल गफ्फार खान इस बंटवारे का मुखर विरोध किया। वो ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की अलग पाकिस्तान की मांग के हमेशा खिलाफ रहे, हालांकि जब बंटवारे पर मुहर लग गई उसके बाद वो कांग्रेस से बोले ‘आपने तो हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया।’
देश के बंटवारे के बाद जब भारत और पाकिस्तान दो अलग मुल्क बने, तब खान अब्दुल गफ्फार खान पाकिस्तान चले गए। वर्ष 1956 में पाकिस्तान सरकार पश्चिमी पाकिस्तान के सभी प्रोविंसों को मिलाकर अपने पाकिस्तान का विस्तार कर रही थी, तब खान साहब को यह बात नागवार गुजरी और वो इसके विरोध में उतर गए, जिसकी वजह से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 1960-70 के दशक में खान अब्दुल गफ्फार खान ने ज्यादातर समय पाकिस्तान की जेलों में ही बिताया।
20 जनवरी, 1988 को अब्दुल साहब ने पेशावर में आखिरी सांस ली, जिससे पहले उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनको अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया जाए। अब्दुल गफ्फार खान की इच्छानुसार उनके मृत शरीर को खैबर पास के जरिए जलालाबाद ले जाया गया। हजारों लोगों का हुजूम उनकी अंतिम विदाई में शामिल हुआ। वर्ष 1987 में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा।
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