पहले इतना समझ नहीं आता था लेकिन धीरे धीरे जब बड़े हुए तो कई ऐसी चीजों से रूबरू हुए जो शायद दिमाग में डाली गईं, शायद थी नहीं। “औरत” शब्द सुनते ही कुछ के मन में एम्पावरमेंट शब्द जगह बनाता है। जगह बनाएगा ही क्योंकि वो जगह छोड़ी गई। उसे बताया गया है कि वो “औरत” है।
वीमंस डे को मनाने वालों को बदलाव की जरूरत है फिर चाहे वो औरत हो या आदमी। भारत का एक बड़ा इतिहास रहा है, कई मामलों में वीरता वाला भी रहा। लेकिन जब बात समानता की आती है तो वहां पुरूष प्रधान ही हावी रहा। रानी पद्मावती वीरांगना थीं। उन्होंने जो किया उस जमाने में वो शायद वीरता का काम था लेकिन आज के दौर में क्या कोई उन्हें आदर्श मान सकता है क्या किसी भी औरत या पुरूष को उन्हें आदर्श मानना चाहिए? क्या आप चाहेंगे कि आज की महिला बलात्कार के डर से आत्महत्या कर जाए? बिलकुल नहीं।
ये सब समझना इसलिए जरूरी है कि पीढ़ी दर पीढ़ी हम बहुत कुछ सीखते आए हैं। कहने को हम सीख भी रहे हैं। जिस समाज के इतिहास में औरत को सीमित रखा गया है उसे खुलकर बाहर आने की जरूरत है। हमारे पूर्वजों के समाज में जो स्थिति महिलाओं की थी जरूरी नहीं वो अब सही है। जुर्म का पता चल रहा है तो उसे मिटाने की भी जरूरत है।
जो कहते हैं समाज में समानता आ गई है वो अंधे हैं। वीमन एम्पावरमेंट की बात करने वालों को सबसे पहले यह बताने की जरूरत है कि क्या उनके खुद के घर में औरतों और आदमियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाता? अगर हां तो बढ़िया लेकिन अगर ना तो किस मुंह से वो वीमंस डे मना रहे हैं।
घर के नियम होना और घर में औरतों के नियम होने में बड़ा अंतर है। उसी अंतर को खत्म करना है। सिर्फ कह देने से होगा भी नहीं। ना हमारे ना आपके। वीमंस डे की जरूरत है। बहुत जरूरत है। लेकिन सिर्फ एक दिन नहीं। हर दिन औरत से “औरत” होने का डर उसके इस एहसास को मिटाने की जरूरत है।
पिछले कुछ अरसे से आप सभी टीवी जरूर देख रहे होंगे, पुलवामा और फिर एयर स्ट्राइक। बेहतरीन टीआरपी वाले प्राइम टाइम बहस तो देखनी बनती ही थी। डिफेंस का ज्ञान रखने वाले कई महारथियों को पेनल में बुलाया जाता था। किसी भी चैनल को आप देख लें आपको एक भी औरत दिखाई दी? क्यों ऐसे मुद्दों पर एक औरत का नजरिया मायने नहीं रखता? बात छोटी लग सकती है लेकिन अनजाने में देख लीजिए एक भी औरत को पेनल में मौका नहीं दिया गया। रिपब्लिक टीवी पर अरनब के शो में कुछ दिन पहले बालाकोट पर बहस हो रही थी। पेनल पर टोटल 14 लोग थे। 14 लोग दहाड़ रहे थे और अपनी बात कह रहे थे लेकिन उन 14 में एक भी औरत नहीं थी।
दूसरों की हामी भरने से अच्छा है औरतें खुद ही अपना रास्ता चुनें। मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं। बदलाव होना जरूरी है। आदमियों में, औरतों में सब जगह पर। इक्वलिटी की जरूरत है, मिशन की भी। पूरी दुनिया में कई जगहों पर आपको समानता की कमी नजर आएगी। भारत में तो रूढ़ीवादी ताकतें भयंकर तरीके से बैठी हुई हैं। शुरूआत घर से ही होनी है। आज अगर वीमंस डे मनाने की चाह रखते हो तो अपने आस पास बदलाव करने की जरूरत है। जाते जाते सिमोन द बोवुआर की ये लाइन याद रखिएगा
“स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है”
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