सदी के महान पार्श्वगायकों में से एक मोहम्मद रफ़ी साहब की आज 98वीं बर्थ एनिवर्सरी है। उनका जन्म 24 दिसंबर, 1924 को पंजाब में अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह गांव में हुआ था। रफ़ी साहब ने भारतीय संगीत को एक से बढ़कर एक सदाबहार गीत दिए। हिंदी फिल्मों में उनका योगदान भूलाया नहीं जा सकता। उनके गुजर जाने के दशकों बाद भी लोग मोहम्मद रफ़ी के गानों को बेहद पसंद करते हैं। उनकी मधुर आवाज़ का जादू आज भी कायम है। रफ़ी साहब ने अपने समय में लगभग सभी नामी म्यूजिक डायरेक्टर और फिल्मकारों के साथ काम किया। इस ख़ास अवसर पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ रोचक बातें…
वर्ष 1980 के आस-पास की बात है। अली सरदार जाफरी एक फिल्म बना रहे थे- ‘हब्बा खातून।’ फिल्म में नौशाद साहब का संगीत था। यह फिल्म कई कारणों से दर्शकों तक तो नहीं पहुंच पाईं, लेकिन इस फिल्म ने मोहम्मद रफी को वो गाना दिया जिसे गाने के बाद उन्हें अपनी जिंदगी में किसी कमी का अहसास नहीं रहा। रिकॉर्डिंग के बाद वो भावुक हो गए। उस गाने के बोल थे, ‘जिस रात के ख्वाब आए, वह रात आई…’। गाने के बाद वे नौशाद साहब से कहने लगे, ‘इस गाने को गाकर बड़ा सुकून मिला है। अब अगर इस दुनिया से चला भी जाऊं तो कोई अफसोस नहीं। अरसे बाद ऐसा गाना गाया है।’ यूं भी नौशाद साहब के साथ मोहम्मद रफी की जोड़ी बाकमाल थी। दोनों ने फिल्म इंडस्ट्री को एक से बढ़कर एक खूबसूरत नगमे दिए।
उस गाने को गाने के बाद लाख कहने के बाद भी उस गाने के लिए उन्होंने एक भी पैसा नहीं लिया। यह संयोग ही है कि नौशाद साहब के लिए गाया यह मोहम्मद रफी का आखिरी गाना था। यहां तक कि यह नगमा मोहम्मद रफी की फिल्मी गायकी के भी आखिरी कुछ गानों में शुमार है, क्योंकि उसी साल यानी जुलाई 1980 में मोहम्मद रफी का इंतकाल हो गया।
मोहम्मद रफी का वर्ष 1924 में पंजाब में जन्म हुआ था। तब अंग्रेजों की हुकूमत हुआ करती थी। हाजी मोहम्मद अली के 6 बेटों में एक थे रफी। बचपन में फकीरों की तरह गाने के शौक ने कब गंभीर गायक बना दिया पता ही नहीं चला। 1935 के आस-पास मोहम्मद रफी का परिवार लाहौर चला गया। जहां उन्होंने शास्त्रीय संगीत के दिग्गज किराना घराने के अब्दुल वहीद खान से गायकी सीखी। 1940 के दशक में वो मुंबई पहुंचे।
रफी साहब के मुंबई जाने से पहले का किस्सा बड़ा दिलचस्प है। कम ही लोग जानते हैं कि मोहम्मद रफी मुंबई जाने से पहले अपने चचेरे भाई के साथ लखनऊ गए थे। उनके लखनऊ जाने का मकसद था नौशाद साहब के अब्बा से उनके बेटे के लिए खत लिखवाना। नौशाद साहब के अब्बा के लिखे खत के साथ ही मोहम्मद रफी और नौशाद की पहली मुलाकात हुई। उस वक्त तक नौशाद साहब का फिल्मी करियर भी 5-6 साल पुराना ही था, लेकिन उनके खाते में कई हिट फिल्मों का संगीत दर्ज था। इसमें ‘नई दुनिया’, ‘शारदा’, ‘कानून और संजोग’ जैसी फिल्मों को गिना जा सकता है। इन्होंने बॉक्स ऑफिस पर सिल्वर जुबली पूरी की थी।
रफी साहब से जब नौशाद की मुलाकात हुई, तब भी वो फिल्म ‘पहले आप’ का संगीत तैयार कर रहे थे। खैर पहली मुलाकात में नौशाद साहब ने मोहम्मद रफी से जब कुछ सुनाने को कहा तो उन्होंने उस जमाने के सुपरस्टार के. एल. सहगल का एक गाना गाया था। इसे सुनने के बाद नौशाद ने मोहम्मद रफी को उसी फिल्म में ‘कोरस’ में गाने का मौका दिया था।
1944 में शुरू हुई यह दोस्ती अद्भुत परवान चढ़ी। दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क भी नहीं था। नौशाद साहब मोहम्मद रफी से कोई 5 साल बड़े थे। बावजूद इसके दोनों दिग्गजों में एक दूसरे को लेकर बहुत इज्जत थी। मोहम्मद रफी ने नौशाद साहब के अलावा एस.डी बर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, ओ पी नैय्यर, रवि, कल्याणजी आनंदजी जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ गाने गाए लेकिन फिल्मी संगीत के जानकारों को हमेशा लगता था कि मोहम्मद रफी की आवाज की ‘रेंज’ को नौशाद साहब से बेहतर कोई नहीं समझ पाया।
इस बात के पक्ष में फिल्म बैजू बावरा के दो गानों का जिक्र हमेशा होता है। ‘ओ दुनिया के रखवाले’ और ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ वैसे यह किस्सा भी फिल्मी दुनिया में बड़ा मशहूर है कि मोहम्मद रफी से पहले तलत महमूद नौशाद साहब के पसंदीदा गायक हुआ करते थे, लेकिन नौशाद साहब ने एक रोज तलत महमूद को सिगरेट पीते देख लिया और इससे नाराज होकर उन्होंने रफी को गाने देना शुरू कर दिया। मोहम्मद रफी ने अपने 35 साल के करियर में करीब 150 गाने नौशाद साहब के लिए गाए।
बतौर गायक मोहम्मद रफी के हरदिल अजीज गानों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। किसी को उनकी मौज-मस्ती वाली गायकी पसंद है तो कोई उनके गजलनुमा गीतों को याद करता है। फिल्मी संगीत के शौकीनों में एक बड़ा तबका रफी के दर्द भरे गाने सुनता है। इनमें से कुछ गानों का जिक्र जरूरी है जिससे रफी साहब की गायकी की विविधता का पता चलता है। ‘परदा है परदा’, ‘ये रेशमी जुल्फें’, ‘कौन है जो सपनों में आया’, ‘रूख से जरा नकाब’, ‘परदेसियों से ना अखियां लगाना’, ‘तेरी आंखों के सिवा’, ‘छू लेने दो नाजुक होठों को’, ‘आजा तुझको पुकारे’, ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’, ‘सौ बार जनम लेंगे’, ‘वतन की राह में’, ‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ जैसे गाने अलग-अलग अंदाज के थे। इन गानों में मोहम्मद रफी की आवाज का दर्द, अल्हड़ता, मस्ती, ठहराव सब समझ आता है।
वर्ष 1980 में रमजान का महीना चल रहा था। अलविदा के दिन मोहम्मद रफी को दिल का दौरा पड़ा। सिर्फ 55 साल की उम्र में मोहम्मद रफी अपने करोड़ों चाहने वालों को छोड़कर चले गए। कहा जाता है कि जब उनका जनाजा निकल रहा था तो उसमें हर धर्म के लोग शरीक थे। अपने चहेते कलाकार को आखिरी बार देखने के लिए लोग कब्रिस्तान की उस दीवार पर चढ़ गए थे, जिसमें शीशे लगे हुए थे। कईयों के हाथ कट गए थे। राज कपूर, सुनील दत्त जैसे उस दौर के बड़े कलाकार भी उनके जनाजे में शरीक हुए थे। इस बात को शायद ही कोई नकार सकता है कि रागदारी के मामले में मोहम्मद रफी जैसा गायक फिर हिंदुस्तान में नहीं आया।
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