बीते सोमवार को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र के वर्धा में एक रैली के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर आरोप लगाया कि वो केरल में वायनाड से दूसरी लोकसभा सीट पर इसलिए लड़ रहे हैं क्योंकि वो “बहुसंख्यक आबादी के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों से चुनाव लड़ने से डरते हैं”। वायनाड, एक ऐसी लोकसभा सीट जहां हिंदुओं की आबादी 50% से भी कम है जिसको राहुल गांधी ने अमेठी के बाद दूसरी सीट के रूप में चुना है।
अपने इस भाषण में, मोदी ने ना केवल राहुल गांधी पर हमला किया बल्कि वो लोगों का ध्यान वायनाड के धार्मिक समीकरणों की तरफ भी खींचते हुए भारत के धर्मनिरपेक्ष ढ़ांचे पर हमला करते हुए दिखाई दिए।
दुर्भाग्य से, मोदी का यह भाषण किसी भी तरह से असामान्य नहीं था। भारतीय जनता पार्टी की तरफ से फिलहाल जो चुनावी अभियान चलाया जा रहा है उससे धार्मिक दरार के गहरे होने की ज्यादा संभावनाएं नजर आती है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम स्पष्ट रूप से यह कहता है कि “कोई भी उम्मीदवार मतदान करने के दौरान अपने धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर किसी भी व्यक्ति को मतदान नहीं कर सकता है।”
उदाहरण के लिए, रविवार को एक रैली में, उत्तर प्रदेश में पार्टी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने राज्य की पूर्व समाजवादी पार्टी सरकार पर आरोप लगाया कि उन्होंने “लोगों की भावनाओं पर अंकुश लगाने” का काम किया, जिसके बाद 2015 में गोमांस का शक होने पर एक व्यक्ति को भीड़ ने मार डाला। वहीं आदित्यनाथ के भाषण के दौरान अखलाक लिंचिंग हत्याकांड का मुख्य आरोपी पहली पंक्ति में बैठा हुआ दिखाई दिया।
इससे एक दिन पहले, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह स्पष्ट किया कि यदि हमारी सरकार दोबारा बनती है तो पार्टी “हिंदुओं, बौद्धों और सिखों” का पक्ष लेने के लिए सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता कानूनों में संशोधन करेगी। यह पार्टी की वैचारिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए होगा कि इन तीनों धर्मों के लिए भारत एक जन्मस्थान के रूप में है, लेकिन इस्लाम और ईसाई धर्म विदेशी मूल के हैं।
भाजपा के चुनाव अभियान का अंदाज निराशाजनक है लेकिन यह आश्चर्यजनक नहीं है। पिछले 5 सालों से, भाजपा ने भारत की राजनीति में एक हिंदुत्व स्टाइल को प्रमोट किया है। इसकी रणनीति में मुसलमानों को सांप्रदायिक हिंसा के संरक्षण के नाम पर विशेष रूप से गौ रक्षा के मुद्दे के आसपास मुसलमानों को चुनावी हाशिए पर ले जाया जा रहा है।
राजनीति का यह ब्रांड आम चुनाव में वोट मांगने के लिए सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करते हुए भाजपा के साथ-साथ अपोजीशन तक पहुँच गया है। जबकि साल 2014 में भाजपा का अभियान था- विकास आएगा, अच्छे दिन आएंगे। उस वादे की निरर्थकता आँकड़ों में देखी जा सकती है। बेरोजगारी 45 साल के सबसे निचले स्तर पर है और लगभग दो दशकों में कृषि आय सबसे कम है।
2019 के चुनाव में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने गंभीर आर्थिक समस्याओं को हल करने पर विचार किया जाना चाहिए ऐसे में भारत की सत्तारूढ़ पार्टी भारतीयों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करके नई समस्याएं पैदा करने का काम कर रही है।
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