बहुत से लोग उर्दू को शेरों शायरी, नगमों की दुनिया का सबसे खूबसूरत ज़रिया मानते हैं। इतिहास में जब भी शायरी, नगमें, शेरों का जिक्र होता है तो एक नाम ‘ग़ालिब’ सबसे पहले कानों में पड़ता है। सदियों बाद भी ग़ालिब हिंदी, उर्दू और फारसी के जानकार लोगों और ख़ासकर युवाओं के बीच जबरदस्त मशहूर शायर बने हुए हैं। आज 15 फ़रवरी को सुप्रसिद्ध शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की 154वीं पुण्यतिथि है। मिर्ज़ा ग़ालिब की डेथ एनिवर्सरी के अवसर पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 में आगरा (दरियागंज) में हुआ था। उनका असल नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां था। लेकिन वे शायरी की दुनिया में ‘ग़ालिब’ नाम से मशहूर हुए। उर्दू और फ़ारसी की दुनिया में उनके जैसा शायर शायद ही पैदा हुआ हो। फ़ारसी कविताओं को हिंदुस्तानी भाषा में पेश करने का श्रेय भी ग़ालिब को ही जाता है। भारत और पाकिस्तान समेत दुनियाभर में ग़ालिब को सुना और पढ़ा जाता है। म़ुगल काल का आखिरी शासक बहादुर शाह जफ़र के दरबारी कवि के रूप में भी मिर्ज़ा ग़ालिब की एक अलग पहचान है।
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
दरबार में रहते हुए उन्हें बहादुर शाह जफ़र द्वितीय द्वारा ‘दबीर-उल-मुल्क’ और ‘नज़्म-उद-दौला’ के खिताब से भी नवाज़ा गया। तब से लेकर आज तक ग़ालिब को हर कोई अपने तरीके से याद करता है। उनकी शायरियां आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाए हुए हैं। थिएटर से लेकर फिल्मों तक, नाटक से लेकर टीवी तक हर जगह मिर्ज़ा ग़ालिब को लेकर कई चीजें दिखाई गई हैं। शायरियों के उनके नगमों को ‘दीवान’ कहा जाता है।
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लावेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
मिर्ज़ा ग़ालिब को शराब पीने की आदत थी। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि उनकी शादी मात्र 13 साल की उम्र में हो गई थी। इस शादी से उन्हें सात बच्चे हुए, लेकिन कोई भी जिंदा नहीं रह पाया। शायद इसी ग़म को उन्होंने अपनी शायरियों के जरिए उकेरा था।
थी खबर गर्म की ‘गालिब’ के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ
मिर्ज़ा ग़ालिब जुआ भी खेला करते थे। इसी वजह से उन्हें छह महीने की जेल भी हुई। बहादुर शाह जफ़र ने उनके लिए कई सिफारिशें की, मगर अंग्रेजी हुकूमत उस वक्त तक भारत में दस्तक दे चुकी थी। जिसके बाद कड़ी मशक्कत के चलते तीन महीने की सज़ा के बाद ग़ालिब को जेल से निकाला गया। किसी के सभी सात बच्चों के दुनिया से चले जाने के बाद उसके जीवन में शायद कुछ नहीं बचता।
लेकिन फिर भी ग़ालिब लिखते रहे। लिखने के अलावा उनको कुछ नहीं आता-जाता था। उन्हें म़ुगल शासकों से पेंशन जरूर मिला करती थी, जिस पर भी अंग्रेजी हुकुमत ने रोक लगा दी। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से इस बारे में बात भी की। वे कलकत्ता भी गए लेकिन बात बनी नहीं।
मिर्ज़ा ग़ालिब कभी किसी भी बंधन में बंधे नहीं थे.. न धर्म ना जात-पात। वे इन सबसे कई ज्यादा ऊपर थे। बच्चों की मौत के बाद वे वैसे ही धर्म से बागी बन गए थे। न रोजे रखना न नमाज पढ़ना। शराब तो उनकी रोजाना की ज़िंदगी का हिस्सा हुआ करती थीं।
होगा कोई ऐसा जो ‘गालिब’ को ना जाने
शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है
15 फ़रवरी, 1869 को दिल्ली में मिर्ज़ा ग़ालिब का इंतकाल हुआ था। लेकिन उर्दू का यह फ़नकार कहां मरने वाला था। ज़िंदा हैं अपनी शायरियों में, नगमों में अपनी कविताओं में…
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