ये हुआ था

जयंती: अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लिखित कई कविताएं आज भी लोगों के बीच है मशहूर

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के को-फाउंडर व दिवंगत नेता अटल बिहारी वाजपेयी की 25 दिसंबर को 98वीं जयंती है। पूर्व पीएम व ‘भारत रत्न’ से सम्मानित अटल जी का लंबी बीमारी के बाद 16 अगस्त, 2018 को दिल्ली के एम्स अस्पताल में निधन हो गया था। वाजपेयी भाजपा के कद्दावर नेताओं में से एक थे। वे अपने जीवनकाल में 3 बार देश के प्रधानमंत्री रहे। उनका जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्यप्रदेश के ग्वालियर में हुआ था।

अटल बिहारी वाजपेयी एक लोकप्रिय राजनेता होने के साथ-साथ ही एक अच्छे हिन्दी कवि, पत्रकार और प्रख़र वक्ता भी थे। उन्होंने कई मशहूर कविताओं की रचना भी की, जो देशभक्ति की भावना से सराबोर हैं। अटल जी की कई कविताएं आज भी लोगों के बीच खूब मशहूर हैं। ऐसे में इस मौके पर पढ़िए उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताएं…

1. भारत जमीन का टुकड़ा नहीं

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,

जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।

हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,

पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।

पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।

कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।

यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,

यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।

इसका कंकर-कंकर शंकर है,

इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।

हम जियेंगे तो इसके लिये

मरेंगे तो इसके लिये।

2. एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,

पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।

अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतंत्रता,

अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतंत्रता।

त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतंत्रता,

दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतंत्रता।

इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,

चिनगारी का खेल बुरा होता है ।

औरों के घर आग लगाने का जो सपना,

वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।

अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,

अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।

ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो,

आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।

पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?

तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।

अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,

माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई?

अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को

दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।

दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से

तुम बच लोगे यह मत समझो।

धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से

कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।

हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से

भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।

जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार,

अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,

स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे

अगणित जीवन यौवन अशेष।

अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध,

काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,

पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा ।

3. टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

सत्य का संघर्ष सत्ता से

न्याय लड़ता निरंकुशता से

अंधेरे ने दी चुनौती है

किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कंप

वज्र टूटे या उठे भूकंप

यह बराबर का नहीं है युद्ध

हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध

हर तरह के शस्त्र से है सज्ज

और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण

अंगद ने बढ़ाया चरण

प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार

समर्पण की माँग अस्वीकार

दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।

4. ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

5. आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी में अँधियारा

सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल

लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल

वर्त्तमान के मोहजाल में-

आने वाला कल न भुलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने

नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ।

डेढ़ दर्जन भाषाओं के जानकार थे पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव, आर्थिक सुधारों के रहे जनक

Raj Kumar

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