चलता ओपिनियन

लिव-इन रिलेशनशिप : तुम्हें डर लगता है, कहीं वो अपना रास्ता खुद ना बना ले!

जब कोई लड़की अपने अधिकारों की बात करती है, स्वतंत्रता के मायने समझती है,
जब वो तुम्हारे बनाई इन ढकोसली परम्पराओं को दुत्कारती है,
जब वो तुम्हारे पितृसत्तात्मक पिंजरे को तोड़ती है…
तुम्हे क्यों डर लगता है भला? क्यों कानून की छड़ी ढूंढने लगते हो?

इंट्रो के पीछे संदर्भ ये है कि, राजस्थान मानवाधिकार आयोग के प्रमुख जस्टिस प्रकाश टांटिया और सदस्य जस्टिस (रि.) महेश चंद्र शर्मा का कहना है कि लिव-इन रिलेशनशिप पर रोक लगनी चाहिए। ऐसे रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाएं ‘रखैल के समान’ हैं।

आयोग ने सरकार से कहा है कि लिव इन रिलेशनशिप पर रोक लगाने के लिए कानून लाया जाए क्योंकि यह समाज को विखंडित कर रहा है।

आगे किसी भी बात पर दिमाग लगाने से पहले यह ध्यान रहे कि जस्टिस शर्मा वो ही हैं जिन्होंने कहा था कि मोर सेक्स नहीं करता है, वह ब्रह्मचारी रहता है, इसलिए राष्ट्रीय पक्षी है।

 

● सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन को माना एकदम उचित

सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में लिव-इन को लेकर गाइडलाइंस जारी की, जिसमें कहा कि जो रिश्ता पर्याप्त समय से हो और टिकाऊ माना जाए (ये कोर्ट तय करेगा), दोनों की अपनी इच्छा हो और दोनों पार्टनर लंबे समय से अपने आर्थिक व अन्य प्रकार के संसाधन आपस में बांट रहे हों तो ये रिश्ता लिव इन ही कहलाएगा।

इसके अलावा लिव इन में रहने वाली महिलाओं के पास वो सारे कानूनी अधिकार हैं, जो भारतीय पत्नी को संवैधानिक तौर पर दिए गए हैं। वहीं अगर लिव इन में रहने वाली महिला तलाक लेती है तो उसे एक शादीशुदा महिला की तरह सारी कानूनी सुरक्षा मिलेगी।

-घरेलू हिंसा से संरक्षण प्राप्त

-प्रॉपर्टी पर अधिकार

-बच्चे को विरासत का अधिकार

ऐसे में जस्टिस शर्मा जैसे लोगों द्वारा इसकी खिलाफत करना उनकी पितृसत्तात्मक सोच जाहिर करता है। जब सामाजिक बंधनो में जकड़ी एक महिला स्वतंत्र होकर सोचती है, अपना भला-बुरा समझने लग जाती है, अपने फैसले लेने में सक्षम हो जाती है…

तो हमेशा कुछ “ठेकेदार” आ खड़े होते हैं और समाजिक सुरक्षा का पाठ पढ़ाते हैं, अधिकारों की खोखली बात करते हैं !

शादी एक पवित्र बंधन है, इसमें कहां कोई दो राय है, कहते आ ही रहे हो ना सदियों से, ठीक है। इसके साथ घरेलू हिंसा में नए रिकॉर्ड भी कायम किए जा रहे हो। यहां लिव इन को लेकर दिये गए तर्कों से शादी के कॉन्सेप्ट को नकारने का मकसद मेरा बिलकुल नहीं है।

सवाल समाज के बुनियादी ढांचे में बंधी उस महिला का है जिसकी झूठी लड़ाई तुम्हारी पुरुषवादी सोच लड़ने का दावा करती है। अगर बराबरी के असल मायनों में पैरोकार हो ही तुम तो फैसले की, स्वतंत्र सोच की क़द्र करना भी उतना ही जरूरी है, जज साहब।

—अवधेश

Neha Chouhan

12 साल का अनुभव, सीखना अब भी जारी, सीधी सोच कोई ​दिखावा नहीं, कथनी नहीं करनी में विश्वास, प्रयोग करने का ज़ज्बा, गलत को गलत कहने की हिम्मत...

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