ये हुआ था

बर्थ एनिवर्सरी: अपने जमाने की सबसे बोल्ड साहित्यकार थीं कृष्णा सोबती

वो साहित्यकार जिसने अपनी रचनाओं में समाज के संघर्ष की दास्तान सुनाई तो विभाजन की त्रासदी को भी खुलकर लिखा। अपराधबोध के स्त्री मन की गांठ खोलने वाली, राजनीतिक हालातों को जस का तस बयां करने वाली महान लेखिका कृष्णा सोबती भले ही आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके जन्मदिन पर हर कोई एक बार फिर उनसे रूबरू होने को बेताब हैं। इनका जन्म भारत के गुजरात (अब पाकिस्तान) में 18 फरवरी, 1925 को हुआ था। ऐसे में ​फिक्शन राइटर कृष्णा सोबती की आज 98वीं जयंती पर जानिए उनके बारे में कुछ अनसुनी बातें..

विभाजन की यातनाओं को खुलकर बताया

कृष्णा सोबती की रचनाओं में लेखन का जुनून शुरुआत से ही दिखने लगा था। अपने उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ में सोबती ने विभाजन की यातनाओं को खुलकर बताया और किस तरह जमीन से अलग होने पर आवाम ने संघर्ष किया उनकी दास्तान सुनाईं। इसके अलावा अपने शुरूआती दिनों में सोबती ने बड़े ही रोचक अंदाज में तत्कालीन राजनीति के हालातों, रियासतों के विलय और आंतरिक संघर्ष के साथ-साथ दिल्ली में बनी नई हुकूमत की हर पेचीदगी को बारीकी से समझाया।

समाज में महिलाओं को उनका नज़रिया रखने की हिम्मत दी

कृष्णा सोबती 60 के दशक में महिलाओं पर लिखती थी, जब महिलाओं की यौनिकता का पुरजोर और खुलेआम इजहार एक नामुमकिन काम माना जाता था। यहां तक कि वो अपनी यौन इच्छाओं से संतुष्ट नहीं होने पर रचनाओं के माध्यम से अपने पति को फटकार लगाने में भी गुरेज नहीं करती थी। सोबती का उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ महिलाओं पर लिखा गया, अब तक का सबसे बोल्ड उपन्यास माना जाता है। इसमें सोबती ने समाज में महिलाओं को उनका नज़रिया रखने की हिम्मत दी।

कहानी में सोबती ने मध्यम वर्ग के व्यापारी परिवार की बहू सुमित्रवंती के बारे में बताया, जिसको कहानी की मुख्य नायिका के रूप में पेश किया। सुमित्रवंती को मित्रों कहकर बुलाया जाता था। मित्रों का अंदाज बेबाक, निडर था। अपनी जिस्मानी मांग को सोबती ने कभी भी किसी अपराध बोध से जोड़कर नहीं देखा।

औरत होने का असली मतलब बताया

कृष्णा सोबती ने अपनी रचनाओं में कभी भी समाज की सच्चाइयों को कहने में कसर नहीं छोड़ी। हर बार वो महिला की हर विडंबना को कागजों पर उकेर देती थी। हालांकि अपने जीवनकाल में उन्हें कभी भी स्त्रीवादी होने का दंभ नहीं रहा, ऐसा कहने पर वो कहती महिला या पुरुष लेखन कोई अलग-अलग चीज नहीं है।

हिंसाओं के विरोध में लौटाया ‘साहित्य अकादमी अवॉर्ड’

औरत होना क्या होता है? तो वह कहती ‘औरत होने का असल मतलब यही है कि उन्हें भी संविधान में पुरुषों जैसे ही अधिकार हासिल हैं।’ वर्ष 1980 में कृष्णा सोबती को उनके उपन्यास ‘ज़िंदगीनामा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में एनडीए सरकार बनने के बाद साल 2015 में देश में असहिष्णु माहौल का नेरेटिव चलाने वालों में सोबती का भी नाम था। सोबती ने उस दौरान धार्मिक कट्टरपंथ और हिंसाओं के नाम पर ‘साहित्य अकादमी अवार्ड’ लौटा दिया था। लंबी बीमारी के बाद 25 जनवरी, 2019 को कृष्णा सोबती का निधन हो गया।

Read: साहित्यकार सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने शोषित वर्ग पर अन्याय के खिलाफ उठाई थी आवाज़

Raj Kumar

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