देश के कई राज्यों में गन्ने की अच्छी पैदावर होती है। गन्ने का ज्यूस और औषधीय रूप में सेवन किया जाता है। इसके अलावा गन्ने से गुड़ भी बनाया जाता है। गुड़ का उपयोग भारत में अति प्राचीन काल से होता आ रहा है। देश की साधारण जनता इसे भोजन का एक आवश्यक व्यंजन मानते हुए व्यापक उपयोग करती रही है। गुड़ में कुछ ऐसे पौष्टिक तत्व विद्यमान रहते हैं जो चीनी में नहीं रहते। स्वच्छ चीनी में जहां चीनी ही रहती हैं, जबकि गुड़ में 90 प्रतिशत के लगभग ही चीनी रहती है। शेष में ग्लूकोज, खनिज पदार्थ, विटामिन आदि रहते हैं जो इंसान की स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी उपयोगी होते हैं। सर्दियों के मौसमें में गुड़ का उपयोग आमतौर पर काफी बढ़ जाता है। गुड़ से स्वाद से लगभग हर भारतीय परिचित है। हाल में दक्षिण भारत के जंगलों में आदिवासियों द्वारा तैयार किए जाने वाले गुड़ के एक प्रकार मारायुर को जीआई यानी भौगोलिक संपद्धा पहचान टैग मिल गया है। इसके बाद अब हममें से कईयों के मन में सवाल उठता है कि आख़िर यह जीआई टैग क्या है? और यह मारायुर गुड़ कहां और कैसे बनाया जाता है?
केरल और तमिलनाडु राज्यों की सीमा पर इड्डुकी जिले स्थित गांव मारायुर में इस ख़ास गुड़ को तैयार किया जाता है। इस गांव में रहने वाले माथुवा आदिवासियों द्वारा पश्चिम घाट के जंगलों में मारायुर गुड़ बनाने का काम होता है। यह गुड़ ख़ासकर केरल में बहुत प्रसिद्ध है। इस मारायुर गुड़ का उपयोग केरल के प्रत्येक मंदिर में आयोजित होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों में किया जाता है। इड्डुकी जिले में स्थित मारायुर के आस-पास के जंगलों में करीब 2500 एकड़ भूमि में गन्ने की खेती की जाती है। यह जगह मुन्नार से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मारायुर गांव के आदिवासियों द्वारा इस गुड़ को एक पारम्परिक व्यवसाय के तौर पर वर्षों से बनाया जा रहा है। यही कारण है कि इस गुड़ को मारायुर गुड़ के नाम से पहचाना जाता है।
केरल के इस प्रसिद्ध गुड़ को तैयार करने के लिए सबसे पहले गन्ने को काटकर इसका रस एकत्र किया जाता है। इसके बाद गन्ने के रस को एक बड़े से बर्तन में डालकर तेज आंच पर गर्म किया जाता है। फिर इसके थोड़े गाडा होने की स्थिति में इसे किसी बर्तन में ठंडा होने के लिए रख दिया जाता है। खबसे ख़ास बात ये है कि इस मारायुर गुड़ को बनाने में किसी तरह के केमिकल्स का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। यहां तक कि इसे बनाने के लिए नमक का भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इस गुड़ के मिठेपन का टेस्ट सबको लुभाता है।
मारायुर के आदिवासियों द्वारा तैयार किए जाने वाले इस ख़ास गुड़ की ब्रिकी का जिम्मा केरल सरकार के अधीन वन विभाग करता है। इस मारायुर गुड़ के लिए कोई भी इच्छुक व्यक्ति वन विभाग की वेबसाइट पर जाकर के सीधा ऑर्डर कर सकता है। इस गुड़ के तैयार हो जाने के बाद तीन महीने के भीतर इसे खाना होता है। इसके बाद इसके टेस्ट में बदलाव होने की संभावना रहती हैं। अगर इस गुड़ को लंबे समय तक रखना चाहते हैं तो फिर फ्रिज में रखकर बाद में काम लिया जा सकता है। मारायुर गुड़ का खाने के अलावा शक्करपट्टी और अन्य उत्पाद बनाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
जीआई टैग या भौगोलिक संकेतक मुख्य रूप से कुछ विशिष्ट उत्पादों (कृषि, प्राकृतिक, हस्तशिल्प और औधोगिक सामान) को दिया जाता है। जीआई टैग विश्व व्यापर संगठन के द्वारा प्रदान किया जाता है। इसके लिए किसी उत्पाद का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में 10 वर्ष या उससे अधिक समय से उत्पन्न या निर्मित होना ज़रूरी शर्त है। जीआई टैग देने का मुख्य उद्देश्य इन उत्पादों को संरक्षण प्रदान करना है। यह घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में प्रीमियम मूल्य निर्धारण का विश्वास दिलाता है। जीआई टैग यह भी सुनिश्चित करता है कि अधिक्रत उपयोगकर्ताओं (कम से कम भौगोलिक क्षेत्र के अंदर रहने वाले) के रूप में दर्ज किए गए उत्पादों का नाम अन्य कोई उपयोग न कर सके।
इसके साथ ही यह स्थानीय उत्पादों के उत्पादन को बढ़ावा देने का काम करता है। जीआई ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के आर्थिक उत्थान का महत्वपूर्ण उपकरण माना जाता है। क्योंकि जीआई टैग में मुख्यतः परम्परागत उत्पाद शामिल होते हैं, जोकि ग्रामीणों और आदिवासियों के द्वारा पीढ़ियों से उत्पादित हो रहे हों। जीआई की वजह से इन उत्पादों की बाज़ार में पहचान और विश्वसनीयता तय होती है।
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गौरतलब है कि भारत में जीआई टैग सर्वप्रथम वर्ष 2004-2005 में, दार्जिलिंग चाय को दिया गया था। इसके बाद भारत के कई अन्य उत्पाद भी जीआई टैग प्राप्त कर चुके हैं। जम्मू और कश्मीर कि पश्मीना, वालनट की लकड़ी पर नक्काशी, सिक्किम की बड़ी इलायची, मैसूर की रेशम, जयपुर की ब्लू मिट्टी के बर्तन, कन्नौज का परफ्यूम, गोवा कि फेनी और राजस्थान की थेवा पेंटिंग आदि को डब्ल्यूटीओ द्वारा जीआई टैग दिया जा चुका है।
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