शहीद-ए-आजम भगत सिंह को हम सब जानते हैं, पर आपने कभी सोचा है कि उनको देशभक्ति व हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाने की प्रेरणा देने वाले शख्स कौन थे? यहां तक कि भगत सिंह उनको अपना गुरु मानते थे, वो महान भारतीय क्रांतिकारी थे सरदार करतार सिंह सराभा। वीर शहीद करतार सिंह की 24 मई को 127वीं जयंती है। वो एक महान क्रांतिकारी थे, जिन्हें 19 साल की उम्र में ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर लटका दिया था। इसी के साथ सराभा भारत में क्रांतिकारी आदर्शवाद के अग्रदूत बन गये। इस खास अवसर पर जानिए क्रांतिवीर करतार सिंह सराभा के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
सरदार करतार सिंह सराभा का जन्म पंजाब प्रांत के लुधियाना जिले स्थित सराभा नामक गांव में 24 मई, 1896 को हुआ था। करतार के सिर से उनके पिता श्री मंगल सिंह और माता साहिब कौर का साया बचपन में ही उठ गया था। माता-पिता के देहांत के बाद उनके दादा जी ने करतार का पालन-पोषण किया। करतार सिंह ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में रह कर ही पूरी की। इसके बाद उन्होंने लुधियाना स्थित मालवा खालसा हाई स्कूल से आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की।
इसके बाद आगे की शिक्षा उन्होंने उड़ीसा में अपने रिश्तेदार के पास रह कर पूरी की। करतार सिंह सराभा की प्रतिभा को देखते हुए उनके दादाजी ने उन्हें आगे की शिक्षा के लिए वर्ष 1912 में अमेरिका भेजा दिया। इस दौरान उन्हें भारतीय होने के कारण गुलाम की दृष्टि से देखा गया और गुलामों की तरह व्यवहार सहना पड़ा। उनके साथ हुए इस दुर्व्यवहार का किसी ने जबाव दिया कि ‘क्योंकि तुम भारत देश से आये हो और भारत एक गुलाम देश है।’ बस फिर क्या था, यहीं से बालक करतार सिंह के हृदय में क्रांति का अंकुरण शुरू हो गया।
करतार सिंह सराभा से पहले अमेरिका और कनाड़ा में अनेक भारतीय रहते थे। अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को में ही वर्ष 1913 में सोहन सिंह भकना और लाला हरदयाल ने ‘गदर पार्टी’ की स्थापना की थी। इन दोनों क्रांतिकारियों का ही अमेरिका में शिक्षा ग्रहण करने आए छात्रों से संपर्क हुआ और उन्हें भारत की आजादी के लिए प्रेरित किया। करतार सिंह ने 17 वर्ष की छोटी उम्र में अपनी पढ़ाई छोड़कर दी और गदर पार्टी की सक्रिय सदस्यता ग्रहण कर ली। वो आगे गदर पत्रिका में गुरुमुखी भाषा के सम्पादक बन गए व बहुत अच्छे तरीके से अपने क्रांतिकारी लेखों और कविताओं के माध्यम से देश के नौजवानों को आजादी की क्रांति के साथ जोड़ा।
गदर पत्रिका हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भारतीय भाषाओं में छपती थी, तथा विदेशों में रह रहे भारतीयों तक पहुंचाई जाती थी। गदर पार्टी का उद्देश्य वर्ष 1857 की क्रांति की तरह ही एक बार फिर ऐसी ही क्रांति के माध्यम से देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद करवाना था। गदर पार्टी इतनी बड़ी बन गई थी कि इसकी खबर इंग्लिश अखबारों में भी छपनी शुरू हो गई। कुछ सरकारी जासूस भी पार्टी में शामिल हो रहे थे।
ब्रिटिश हुकूमत वर्ष 1914 में शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल थी, जिसकी वजह से ब्रिटिश सेना और सरकारी तंत्र खुद को इस युद्ध में बचाने में लगा हुआ था। इसको ही गदर पार्टी ने अपने लिए क्रांति करने का सुनहरा अवसर जानकर अपने पत्र में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का आह्वान कर दिया। 5 अगस्त, 1914 को एक पत्र में इस बारे में पार्टी के हर सदस्य को जानकारी दी गई। 15 सितंबर, 1914 को करतार सिंह अपने साथी सत्येन सेन और विष्णु गणेश पिंगले के साथ अमेरिका छोड़कर भारत रवाना हुए।
करतार सिंह सराभा कोलंबो के रास्ते नवंबर, 1914 में कलकत्ता पहुंच गए। बनारस में उनकी मुलाकात रास बिहारी बोस से हुई, जिन्होंने करतार को पंजाब जाकर संगठित क्रांति शुरू करने को कहा। 25 जनवरी, 1915 को रास बिहारी बोस अमृतसर आए और करतार सिंह व अन्य क्रांतिकारियों से सलाह देकर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति शुरू करने का फैसला किया गया। इसके लिए ब्रिटिश सेना में काम कर रहे भारतीय सैनिकों की मदद से सैन्य-छावनियों पर कब्जा करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए 21 फरवरी, 1915 का दिन सारे भारत में क्रांति के लिए निश्चित किया गया।
इसी बीच उन्होंने अपने लुधियाना ज़िले में एक छोटी सी फैक्टरी लगाई जहां छोटे हथियार बनाए जाते थे। खुद करतार सिंह ने लाहौर छावनी के शस्त्र भंडार पर हमला करने का जिम्मा लिया। सारी तैयारियां पूरी हो गईं, लेकिन कृपाल सिंह नामक एक गद्दार साथी पुलिस का मुखबिर बन गया और क्रांति की योजना को पुलिस के सामने रख दिया। पुलिस को इसकी खबर मिलते ही क्रांति से पहले 19 फरवरी को ही गदर पार्टी के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। भारतीय सैनिकों को छावनियों में शस्त्रविहीन कर दिया गया। इसे अंग्रेजों ने ‘लाहौर षड्यंत्र’ नाम दिया।
सरकादार करतार सिंह सराभा अंग्रेजों से बच कर निकलने में कामयाब रहे, लेकिन वो देश छोड़कर नहीं गए। उन्हें काबुल में मिलने के लिए कहा गया, परंतु काबुल जाने की बजाय करतार सिंह अपने साथियों को छुड़वाने की योजना बना रहे थे। हालांकि, उनकी यह कोशिश नाकाम रही और उनको भी गिरफ्तार कर बाकी आंदोलनकारियों के साथ लाहौर जेल भेज दिया गया। इसके बाद उन पर मुकदमा चलाया गया और ब्रिटिशराज के खिलाफ विद्रोह की साजिश रचने के आरोप में करतार को फांसी की सजा सुनाई गई।
अंग्रेजी हुकूमत ने 16 नवम्बर, 1915 को भारत माता के इस वीर बालक को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी के तख्ते पर लटका दिया। आखिर दोष क्या था- अपने मुल्क के प्रति वफादारी और गद्दार अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने की इच्छा शक्ति। सरदार करतार सिंह सराभा महज 19 साल की छोटी सी उम्र में फांसी पर हंसते-हंसते चढ़ गए। उनका गदर आंदोलन तो सफल न हो सका, लेकिन करतार सिंह ने देश में क्रांति की ऐसी लहर पैदा दी कि आने वाली पीढ़ियों के लिए वो एक बड़े प्रेरणास्रोत बन गए।
भगत सिंह को अपने प्रेरणास्रोत करतार की लिखी एक ग़ज़ल प्रिय थी और वे अक्सर इसे गुनगुनाते थे:
“यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा।”
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