दया बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी।
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया।
वित्त बिना शूद गये, इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किये।।
– ज्योतिबा फुले
उन्नीसवीं सदी में भारतीय इतिहास में अनेक महापुरुष हुए, जिन्होंने समाज में व्याप्त तमाम सामाजिक कुरीतियों का खुलकर विरोध किया। उन्हीं में से प्रमुख थे महात्मा ज्योतिबा फुले। आज 28 नवंबर को महात्मा ज्योतिबा फुले की 133वीं पुण्यतिथि है। उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष किया। ज्योतिबा फुले ने अछूतोद्धार, नारी शिक्षा, विधवा विवाह व किसानों के हित में उल्लेखनीय कार्य करने का काम किया था। इस अवसर पर जानिए उनके संघर्षमयी जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
महात्मा ज्योतिबा फुले का पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था। उनका जन्म 11 अप्रैल, 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। उनका परिवार आजीविका के लिए सतारा से पुणे आकर बस गया और फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग ‘फुले’ के नाम से जाने जाते थे। ज्योतिबा जब एक साल के थे तभी उनकी मां का देहांत हो गया था। इसलिए उनके पालन-पोषण का दायित्व सगुनाबाई नामक दाई ने संभाला। दाई ने उन्हें बेटे की तरह ममता और दुलार दिया।
जब ज्योतिबा सात वर्ष के थे, उन्हें गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया। परंतु, जात-पात के भेदभाव के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। पर वे आगे पढ़ना चाहते थे, ऐसे में उनकी पढ़ाई का जिम्मा उनकी दाई मां ने ही उठाया। उनको जब भी समय मिलता बालक ज्योतिबा को घर पर ही पढ़ाने लगी। घर के कामकाज करने के बाद जो समय बचता था उसमें ज्योतिबा किताबें पढ़ते थे। ज्योतिबा फुले अनेक विषयों पर बुजुर्ग और अनुभवी लोगों से अपनी जिज्ञासा को शांत करते थे, जिससे वे लोग ज्योतिबा से काफी प्रभावित भी होते थे।
ज्योतिबा फुले के पड़ोस में अरबी-फ़ारसी भाषा के विद्वान गफ्फार बेग मुंशी एवं फादर लिजीट साहब रहते थे। इन लोगों ने बालक ज्योतिबा की प्रतिभा और शिक्षा के प्रति लग्न को देखा तो उसे फिर से विद्यालय भेजने का प्रयास किया। इसके बाद वे फिर से स्कूल पढ़ने जाने लगे। उनके बारे में कहा जाता है कि ज्योतिबा शुरू से ही कुशाग्र बुद्धि वाले थे और अपनी कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान पर आते थे।
वर्ष 1840 में ज्योतिबा फुले का विवाह सावित्रीबाई फुले से हुआ, जो बाद में खुद भी प्रसिद्ध समाजसेवी बनीं। यही कारण था कि दोनों पति-पत्नी ने मिलकर जीवनभर दलित व स्त्री शिक्षा में सुधार का कार्य किया।
ज्योतिबा ने जब देखा की देश में महिलाओं को शिक्षा से वंचित और दलितों की स्थिति काफी दयनीय है तो उन्होंने अपना जीवन उनके उत्थान में ही समर्पित कर दिया। उनका मानना था कि माताएँ जो संस्कार बच्चों पर डालती हैं, उसी में उन बच्चो के भविष्य के बीज होते है। इसलिए उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वे लडकियों को शिक्षित करेंगे। उन्होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी संघर्ष किया।
ज्योतिबा फुले ने महिलाओं की दशा सुधारने और उन्हें शिक्षित करने के लिए वर्ष 1848 में एक स्कूल खोला, जोकि महिला शिक्षा के क्षेत्र में देश का पहला विद्यालय था। जब बालिकाओं को पढ़ाने के लिए जब अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को खुद ने ही पढ़ाने योग्य बना दिया। फिर मिशनरीज के सामान्य स्कूल में प्रशिक्षण दिलाया। प्रशिक्षण के बाद वह भारत की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका बनीं।
उन्होंने निश्चय किया कि वह वंचित वर्ग की शिक्षा के लिए स्कूलों का प्रबंध करेंगे। समाज में उस समय जात-पात, ऊँच-नीच ने गहराई से जड़ें जमा रखी थी। दलितों एवं स्त्रियों की शिक्षा के रास्ते बंद थे। ज्योतिबा इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए दलितों और लड़कियों को अपने घर में पढ़ाते थे। वह बच्चो को छिपाकर लाते और वापस पहुंचाते थे। लेकिन उनके प्रयासों से जैसे-जैसे उनके समर्थक बढ़े, अब वे खुले में स्कूल चलाने लग गये।
ज्योतिबा फुले की प्रारंभ से ही महान लोगों के जीवन को जानने के प्रति जिज्ञासा थी, इसलिए उन्होंने कई संत-महात्माओं की जीवनियां पढ़ी तो आत्मज्ञान होने पर उन्होंने माना कि ईश्वर ने सबको समान बनाया तो फिर ऊँच-नीच का भेद क्यों होना चाहिए। उन्होंने किसानों की दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए कई कदम उठाये व उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। उन्हें गुलामी से नफरत होती थी। उन्होंने महसूस किया कि जातियों और पंथो पर बंटे इस देश का सुधार तभी संभव है जब लोगो की मानसिकता में सुधार होगा। स्त्री और दलित वर्ग की दशा अच्छी नहीं थी। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता था। ज्योतिबा को इस स्थिति पर बड़ा दुःख होता था।
जब ज्योतिबा व उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं और वंचितों को शिक्षा देना प्रारंभ किया तो समाज के कई लोग उनसे नाराज हो गये। जब सावित्रीबाई स्कूल जाती तो लोग उनको तरह-तरह से अपमानित किया करते थे, परन्तु वह महिला अपमान का घूँट पीकर भी अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ रहे थे। जब उनका कार्य उच्चवर्ग के लोगों को खटकने लगा तो उन्होंने उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया, जिसके कारण कुछ समय के लिए उनके इस कार्य में रूकावट आ गयी, परंतु जल्द ही उन्होंने एक के बाद एक तीन स्कूल बालिकाओं के लिए खोल दिए।
महात्मा ज्योतिबा फुले ने ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संगठन की स्थापना की थी। सत्य शोधक समाज उस समय के अन्य संगठनो से अपने सिद्धांतो व कार्यक्रमों के कारण बिल्कुल अलग था। सत्य शोधक समाज पूरे महाराष्ट्र में शीघ्र ही फ़ैल गया। सत्य शोधक समाज के लोगो ने जगह–जगह दलितों और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोले और छूआछूत का विरोध किया। साथ ही किसानों के हितों की रक्षा के लिए आन्दोलन चलाया। ज्योतिबा और उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया। धर्म, समाज और परम्पराओं के सत्य को सामने लाने हेतु उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं।
तृतीय रत्न,
छत्रपति शिवाजी,
राजा भोसला का पखड़ा,
ब्राह्मणों का चातुर्य,
किसान का कोड़ा,
अछूतों की कैफ़ियत आदि।
देश से छुआछूत को खत्म करने व समाज के वंचित तबके को सशक्त बनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन 28 नवम्बर, 1890 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ।
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