भारतीय स्वतंत्रता सेनानी यतीन्द्र (जतीन्द्र) मोहन सेनगुप्त की आज 22 फ़रवरी को 138वीं जयंती है। उन्होंने देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी दिलाने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। वह आजादी आंदोलन के दौरान कई बार जेल भी गए। यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त अपने कार्यों की वजह से ‘देशप्रिय’ के नाम से भी प्रसिद्ध थे। वे इस दौरान स्थानीय राजनीति में भी सक्रिय रहे। इस ख़ास अवसर पर जानिए क्रांतिकारी जतीन्द्र मोहन सेनगुप्त के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
जतीन्द्र उर्फ यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त का जन्म 22 फरवरी, 1885 को ब्रिटिश-भारत के बंगाल के चटगांव (अब बांग्लादेश) जिले के बारामा में हुआ था। वह एक जमींदार परिवार से आते थे। उनके पिता जात्रा मोहन सेनगुप्त वकील और बंगाल विधान परिषद के सदस्य थे। उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुईं।
बाद में यतीन्द्र उच्च शिक्षा के लिए वर्ष 1904 इंग्लैंड चले गए। जहां उन्होंने कैंब्रिज के डाउनिंग कॉलेज से वर्ष 1905 में कानून की डिग्री हासिल की। इंग्लैंड में प्रवास के दौरान उनकी मुलाकात एक अंग्रेज युवती एडिथ एलेन ग्रे से हुईं। बाद में इन दोनों ने शादी कर लीं। एडिथ बाद में नेली सेनगुप्त के नाम से प्रसिद्ध हुईं। यतीन्द्र की पत्नी भारत की आजादी के लिए अपने पति के साथ कई बार जेल भी गई थी।
यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त ने वकालत की पढ़ाई करने के बाद कोलकाता उच्च न्यायालय में अपनी वकालत की प्रैक्टिस शुरू की। वह रिपन लॉ कॉलेज में अध्यापक भी रहे। वर्ष 1911 में उन्होंने बंगाल के प्रांतीय सम्मेलन में चटगांव का प्रतिनिधित्व किया। यही से उनका राजनीतिक करियर भी शुरू हो गया। इनदिनों में ही वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस यानि आईएनसी में शामिल हो गए। उन्होंने एक यूनियन बनाने के लिए बर्मा ऑयल कंपनी के कर्मचारियों को भी संगठित किया था।
लेकिन वह जल्द ही देश के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वर्ष 1921 में यतीन्द्र मोहन ने महात्मा गांधी द्वारा संचालित ‘असहयोग आंदोलन’ में भाग लिया और वकालत करना ही छोड़ दिया। वह मजदूर हित समर्थक थे तथा उन्होंने असम-बंगाल रेलवे की हड़ताल का संयोजन किया था। इसके बाद वह बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने तथा ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ में भी उन्होंने सक्रिय नेतृत्व किया।
यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त वर्ष 1923 में बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे। वर्ष 1925 में चित्तरंजन दास की मृत्यु के बाद उन्हें ‘बंगाल स्वराज पार्टी’ का अध्यक्ष चुना गया। यतीन्द्र 10 अप्रैल, 1929 से 29 अप्रैल, 1930 तक कलकत्ता के महापौर भी चुने गए थे। मार्च, 1930 में रंगून में एक सार्वजनिक बैठक में उन्हें सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काने और भारत-बर्मा अलगाव का विरोध करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। यतीन्द्र वर्ष 1931 में प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंग्लैंड गए। बाद में उन्हें जनवरी, 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया। यतीन्द्र को दार्जिलिंग, पूना व रांची की जेलों में कैद रखा गया। उन्होंने जीवनभर राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया और वह आज भी ‘देशप्रिय’ उपनाम से विख्यात हैं।
यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त को जब रांची की जेल में भेजा गया, तो वहां उनका स्वास्थ्य लगातार खराब रहने लगा। यहीं पर 22 जुलाई, 1933 को आखिरकार उनका निधन हो गया। भारत सरकार ने वर्ष 1985 में स्वतंत्रता सेनानी यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त और उनकी पत्नी नेली सेनगुप्त की स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया।
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