असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर कवयित्री इंदिरा गोस्वामी की आज 29 नवंबर को 12वीं पुण्यतिथि है। इंदिरा असम में ‘मामोनी रायसोम गोस्वामी’ और ‘मामोनी बैदेओ’ के नाम से लोकप्रिय हैं। वह असम भाषा की संपादक, कवयित्री, प्रोफेसर और लेखिका थीं। इंदिरा गोस्वामी को वर्ष 1983 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ व वर्ष 2001 में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। उन्होंने असमिया लोगों के अनकहे कष्टों और दु:खों को अपने साहित्य के माध्यम से आवाज दीं। उनकी कई रचनाओं को आसामी भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है, जिसमें ‘द मोथ ईटन हावडा ऑफ़ द टस्कर’ तथा ‘पेज स्टैन्ड विद ब्लड’ शामिल हैं। इस अवसर पर जानिए उनकी जिंदगी के बारे में कुछ अनसुने किस्से…
असमी साहित्यकार इंदिरा गोस्वामी का जन्म 14 नवंबर, 1942 को गुवाहाटी में हुआ था। उनके पिता का नाम उमाकांत गोस्वामी व माता का नाम अंबिका देवी था। उनकी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा लताशिल प्राइमरी स्कूल, गुवाहाटी में हुईं। इंदिरा ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई हांडिक गर्ल्स कॉलेज, गुवाहाटी से पूरी कीं। इसके बाद उन्होंने वर्ष वर्ष 1960 में स्नातक की उपाधि हासिल कीं।
इंदिरा ने असमिया में अपनी परास्नातक की पढ़ाई गुवाहाटी विश्वविद्यालय से वर्ष 1963 में पूरी कीं। वर्ष 1962 में जब वह विद्यार्थी जीवन में थीं, तब ही उनका पहला कहानी संग्रह ‘चिनकी मोरोम’ प्रकाशित हुआ था। उन्होंने वर्ष 1973 में अपनी पीएचड़ी पूरी कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर लीं।
इंदिरा गोस्वामी का बचपन अवसादों में गुजरा। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द अनफिनिश्ड ऑटोबायोग्राफी’ में इसका उल्लेख भी किया है। इंदिरा गोस्वामी का पहला विवाह वर्ष 1965 में एक असमिया समु्द्री इंजीनियर माधवन रायसोम अयंगार से हुआ था। शादी के करीब अठारह महीने बाद उनके पति की एक कार दुर्घटना में मौत हो गईं। उसके बाद वह असम लौटीं और गोलपारा सैनिक स्कूल में पढ़ाने लगीं।
जब वह अपने जीवन में ज्यादा अकेलापन महसूस करने लगी तो इससे बचने के लिए इंदिरा गोस्वामी ने लेखन कार्य शुरू कर दिया। इस दरम्यान उन्होंने दो उपन्यास लिखे। ये ‘अहिरोन’ और ‘चेनबोर सरोटा’ है। उन्होंने इन उपन्यास में मध्यप्रदेश और कश्मीर में अपने पति के साथ बिताए पलों के बारे में अपने स्वयं के अनुभव साझा किए।
असमिया साहित्य की मशहूर लेखिका इंदिरा गोस्वामी मुख्य रूप से असमिया भाषा में ही लेखन कार्य किया करती थी। उनका पहला उपन्यास ‘चेनबार स्रोत’ था। बाद में उनके द्वारा लिखे उपन्यास खूब चर्चित हुए। इनमें ‘नीलकंठ ब्रज’, ‘अहिरन’, ‘मामरे धारा तरोवाल’, ‘संस्कार’, ‘ईश्वर जख्मी जात्री’, ‘जेज आरू धूलि धूसरित पृष्ठ’, ‘दासरथीर खोज’ और ‘छिन्नमस्ता’ आदि प्रमुख तौर पर शामिल है। इंदिरा के उपन्यास ‘दाताल हाथीर उने खोवा हावदा’ को क्लासिक का दर्जा हासिल हुआ।
वर्ष 1983 में इंदिरा गोस्वामी को उनके उपन्यास ‘मामारे धारा तारवल’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1988 में उनकी आत्मकथा ‘अधलिखा दस्तावेज’ प्रकाशित हुईं। गोस्वामी ने असम के उग्रवादियों के अंतर्मन को समझा और केंद्र सरकार व उग्रवादियों के बीच शांतिवार्ता के लिए मध्यस्थता भी की थी।
अपने करियर के दौरान गोस्वामी दिल्ली विश्वविद्यालय के असमिया भाषा विभाग की विभागाध्यक्ष भी रहीं। इंदिरा के योगदान के लिए उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मानद प्रोफेसर का दर्जा प्रदान किया गया। उन्हें डच सरकार द्वारा वर्ष 2008 में ‘प्रिंसिपल प्रिंस क्लॉस लॉरिएट’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। गोस्वामी को वर्ष 2000 में साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से नवाज़ा गया।
असमिया साहित्य की प्रसिद्ध लेखिका इंदिरा गोस्वामी का निधन 29 नवंबर, 2011 को 69 वर्ष की उम्र में असम की राजधानी गुवाहाटी में हुआ।
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