संतोष गुरव ने पिछले साल इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में अपना ग्रेजुएशन पूरा किया और नौकरी की उम्मीद में निकल पड़े। 6 महीने बाद, 27 साल के इस नौजवान को पुणे शहर में एक तंग दुकान पर मिक्सर-ग्राइंडर, टेबल फैन और अन्य घरेलू उपकरण की मरम्मत करते हुए देखा गया। इस काम से लगभग 3500 रूपए हर महीने कमाता है, जिससे कि वो बस अपने कमरे का किराया देता है जो वह दो अन्य लोगों के साथ पहले से शेयर करता है।
हालांकि गुरव ने अभी तक अपना एजुकेशन लोन चुकाना शुरू नहीं किया है जो कि ग्रेजुएशन के लिए उन्होंने लिया था। हर साल बनने वाले सैकड़ों-हजारों इंजीनियरों में से संतोष एक है जो कंप्यूटर कोड से लेकर सिविल इंजीनियरिंग तक सब कुछ पढ़ते हैं। भारतीय एजुकेशन सिस्टम से हर साल ऐसे पीड़ित निकलते हैं जिनमें कुछ एजुकेशन लोन के तले दबे होते हैं तो कुछ अपने क्षेत्र में नौकरी मिल जाने की उम्मीद पर जीते हैं।
2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता संभाली तो “मेक इन इंडिया” के तहत मैन्यूफेक्चरिंग को बढ़ावा देकर लाखों नौकरियां देने का वादा पुरजोर तरीके से किया था। मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले स्वतंत्रता दिवस के भाषण में कहा, “2022 तक 100 मिलियन नई नौकरियां पैदा होंगी यह मेरा वादा है”।
सरकार के 5 साल पूरे होने को हैं और रोजगार के अवसर कहां पैदा हुए इस बारे में कोई स्पष्ट आंकड़ें नहीं है और रही बात मैन्यूफेक्चरिंग क्षेत्र की तो वो पहले से और सुस्त दिखाई पड़ता है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) थिंक टैंक के आंकड़ों के मुताबिक, फरवरी 2018 में भारत की बेरोजगारी दर बढ़कर 7.2 प्रतिशत हो गई। यह आंकड़े सरकारी आंकड़ों की तुलना में हाल के हैं और कई अर्थशास्त्री उन्हें अधिक विश्वसनीय मानते हैं। प्रतिशत के इन आंकड़ों को अगर हम समझें तो एक अनुमान है कि इस साल फरवरी में 31.2 मिलियन लोग सक्रिय रूप से नौकरियों की तलाश में थे।
25 साल से कम उम्र के लोगों की आधी आबादी रखने वाले देश में जानकारों का कहना है कि बेरोजगार युवाओं के वोट अप्रैल-मई में होने वाले आगामी आम चुनाव में मोदी के दूसरे कार्यकाल की उम्मीदों पर पानी फेर सकते हैं। वहीं दूसरी ओर उद्योगों में ऑटोमेशन का बढ़ता उपयोग, नौकरी के लिए बाजार में आने वाले युवाओं की बढ़ती संख्या जैसी कई समस्याओं का सामना कंपनियों को करना पड़ता है अगर वे भारत में स्थापित होना चाहते हैं।
इसके अलावा एक बड़ी समस्या जो हमारे सामने हैं वो यह कि अक्सर भारत में 80 प्रतिशत से अधिक इंजीनियर रोजगार पाने योग्य ही नहीं हैं। कई ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले छात्र जो अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करते हैं, आगे चलकर उनमें मजबूत अंग्रेजी का अभाव साफ तौर पर दिखाई देता है।
वहीं कुछ इंजीनियरिंग से निकले छात्र आज कॉल सेंटर, कस्टमर केयर सेंटर, चपरासी तक की नौकरियों में अपना समय गंवा रहे हैं। लेकिन सोचने वाली बात जो है वो यह कि बेरोजगार इंजीनियर कमजोर फसल की कीमतों से असंतुष्ट लाखों किसानों के जैसे हमारे देश की एक नई समस्या है और हमें यह बात जल्दी ही समझनी होगी।
माना टीवी, फ्रीज सही करना गुरव को अच्छा लगता होगा, उसकी हॉबी होगी, लेकिन जिस काम के लिए उसने अपने 4 साल और लाखों रूपये बहाए यह वह नहीं है जो गुरव करना चाहता था।
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