इस साल की शुरुआत में एक ब्रिटिश मुस्लिम माया रेचल मैकमैनस ने स्टेज पर अपने पार्टनर के साथ शादी की। इस शादी में कुछ खास था। जैसा कि आपको पता ही होगा मुस्लिम समाज के हिसाब से शादी के लिए काजी की जरूरत होती है, ठीक वैसे ही जैसे हिन्दू समाज में पंडित शादी करवाते हैं।
यहां ध्यान देने वाली बात यह रही कि रेचल मैकमैनस की शादी असल में एक महिला काजी ने करवाई। इसी बात ने मीडिया और पूरे विश्व भर के लोगों का ध्यान खींचा।
अपने पति के साथ मिलकर माया ने फैसला किया कि एक महिला काजी ही उनकी शादी करवाए। भारतीय महिला मुस्लिम आन्दोलन (बीएमएमए) की कोफ़ाउंडर नूरजहाँ सफ़िया निवाज़ ने इस पर कहा कि ऐसा पहली बार था जब महिला क़ाज़ी ने शादी को पूरा करवाया था।
सन् 2016 में बीएमएमए ने मुस्लिम महिलाओं को क़ाज़ी बनाने के लिए ट्रेनिंग करना शुरू की थी। यह काम पारंपरिक रूप से मुस्लिम पुरूषों द्वारा किया जाता रहा है।
मैकमैनस और भारत के लाखों मुसलमानों में से हाल ही में महिला क़ाज़ियों के बाहर आने के कई मतलब निकाले जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इससे शादी में समझौते कम होंगे और महिलाओं को अधिक न्याय मिलेगा।
निवाज़ ने कहा कि शरीयत या इस्लामी कानून में जो कुछ भी आज है वो बेहद पुरूष प्रधान है। निवाज़ खुद भी एक काजी हैं।
निवाज ने आगे कहा कि महिलाएं पीड़ित बनी रहती हैं। वे निकाह हलाला की शिकार होती हैं। हलाला इस्लाम में एक प्रथा होती है जिसके अनुसार अगर कोई पति और पत्नी का तलाक होता है तो उन्हें आपस में वापस शादी करने से पहले महिला को किसी और मर्द से शादी करनी होती है।
प्रोफेसर इब्राहिम का कहना है कि कुरान या हदीश में ऐसी कोई शिक्षा नहीं है जो महिलाओं को क़ाज़ी होने से रोकती है। यहां तक कि पैगंबर मुहम्मद की पत्नी जिसे सैय्यदा आयशा के रूप में जाना जाता है उन्होंने कई लोगों का निकाह करवाया।
निवाज का कहना है कि पुरुषों के लिए डिज़ाइन किए गए “मिसोजनिस्ट सिलेबस” को बदलने की जरूरत थी और बीएमएमए ने अपना खुद का सिलेबस तैयार किया जिसमें महिलाएं नारीवादी दृष्टिकोण से कुरान पढ़ती हैं। और भारतीय संविधान की जांच करती हैं ताकि वे देश कानून को ध्यान में रखते हुए अपने फैसले ले सकें।
महिला [क़ाज़ी] की प्रथा भारत में नई लग रही है, लेकिन विचार उतना नया नहीं है। इंडियाना के यूनिवर्सिटी ऑफ़ नोट्रे डेम में इस्लामी अध्ययन के एक प्रोफेसर इब्राहीम मोजो का कहना है कि उत्तर भारत में मुसलमानों ने हनफ़ी स्कूल ऑफ लॉ को सदियों तक फॉलो किया जो महिलाओं को काजी बनाने की अनुमति देते हैं।
बीएमएमए को प्राइवेट डोनेशन और चैरिटी से फंडिंग होती है। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु और उड़ीसा सहित पूरे भारत में 15 महिला क़ाज़ी शादियां करवा रही हैं।
पश्चिमी मुंबई के उपनगर बांद्रा के एक क़ाज़ी 47 वर्षीय हिना सिद्दीकी ने कहा कि हम पुरुष क़ाज़ी के विपरीत हर शादी के दौरान पुरुष और महिला दोनों को बुलाते हैं। हम कहानी का सिर्फ एक पक्ष नहीं सुनते हैं।
भारत में मुस्लिम पुरुषों द्वारा ट्रिपल तलाक पर एक संभावित जेल की सजा के बाद सिद्दीकी और उनके सहयोगियों ने अपने ऑफिस में पीड़ित महिलाओं की संख्या में वृद्धि देखी है।
बांद्रा में एक अन्य महिला क़ाज़ी 60 वर्षीय जुबेदा खातून ने कहा कि अब लोग ट्रिपल तलाक देने से डरते हैं। इसलिए वे अपनी पत्नियों को शारीरिक और भावनात्मक दोनों तरह से परेशान करते हैं और उम्मीद करते हैं कि महिला खुद ही उन्हें छोड़ देगी। पुरुष के पक्ष में एक और तरीका यह है कि शरिया कानून के अनुसार अगर कोई महिला तलाक मांगती है तो पति पर किसी भी तरह का देय नहीं रहता।
यहीं महिला क़ाज़ी एक कदम आगे उठाती हैं और यह सुनिश्चित करने का प्रयास करती हैं कि महिलाएँ अपने मेहर प्राप्त करने के दौरान अपने कानूनी अधिकारों को प्राप्त करें। मेहर असल में दुल्हन को उसकी शादी के दिन, गुजारा भत्ता और शादी के बाद घर में दिए गए सामान का एक हिस्सा होता है।
फिलहाल महिला क़ाज़ी के साथ शादी करना कहीं ना कहीं काफी मुश्किल नजर आता है। एक महीने के वक्त में जज दूल्हे और दुल्हन की जानकारी पर ध्यान देते हैं जिसमें उनकी पहचान, आर्थिक स्थिति, वैवाहिक स्थिति और यहां तक कि उनके विवाह या व्यक्तिगत कारण भी शामिल किए जाते हैं। यह धोखाधड़ी वाले विवाहों की दर को कम करता है।
‘महिला क़ाज़ी जैसी कोई चीज़ नहीं’
लेकिन हर कोई इस बात से सहमत नहीं है कि महिला क़ाज़ी मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा कर सकती हैं। मुंबई में सुन्नी जामा मस्जिद के मुस्लिम नेता सैयद मोइनुद्दीन अशरफ ने कहा कि इस्लाम में महिला क़ाज़ी जैसी कोई चीज़ नहीं है। यह सिर्फ एक नए जमाने की चीज़ है।
इंडियाना के प्रोफेसर मोसा का मानना है कि कुछ इस्लामी विचार जैसे कि शफी, अहल-ए-हदीस और सलाफी ने महिलाओं को क़ाज़ी बनने से रोक लगा रखी है लेकिन फिर भी यह धार्मिक रूप से स्वीकार्य है।
उनका मानना है कि कुरान या इससे जुड़ी किसी परंपरा में कोई शिक्षा नहीं है जो महिलाओं को क़ाज़ी होने से रोकती है। खातून और सिद्दिकी फिलहाल मुंबई में काजी हैं और अभी तक तलाक के एक मामले को देख चुकी हैं।
खातून ने कहा कि ऐसे में हम महिला को उसके पति से दो लाख ($ 2,874) रूप दिला सकते थे लेकिन अधिकांश लोग अभी भी अपने तलाक को पुरुष क़ाज़ी के लेटरहेड पर जारी करना पसंद करते हैं।
निवाज़ के अनुसार बीएमएमए द्वारा क़ाज़ी ट्रेनिंग के दूसरे बैच में दाखिला लेने के लिए 30 और महिलाएँ आगे आ रही हैं।
निवाज ने कहा कि माया की शादी [मैकमैनस] बिना किसी आपत्ति के हुई। हमने जो काम किया है उसके लिए कोई फतवा जारी नहीं किया है जो हम [महिला क़ाज़ी] कर रहे हैं। हमारा अस्तित्व है। यह अपने आप में एक बड़ी सकारात्मक बात है।
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