‘जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं,
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं’
हिंदी की काव्य शैली को जीवंत करने वाले व भारतीय साहित्य जगत को एक नई दिशा देने वाले महान राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की आज 12 दिसंबर को 59वीं पुण्यतिथि है। ‘दद्दा’ के नाम से लोगों के बीच मशहूर मैथिली शरण गुप्त को साहित्य जगत का ‘बड़ा भाई’ भी कहा जाता है। आज हम हिंदी के जिस काव्य स्वरूप को देखते हैं, उसमें मैथिलीशरण का बहुत बड़ा योगदान है। मैथिली शरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त, 1886 को उत्तर प्रदेश के झांसी के पास गांव चिरगांव में हुआ था। उनका स्कूली समय से ही पढ़ाई में मन कम लगता था, इसके बजाय वे खेलकूद में अपना ज्यादा समय बिताते थे। उनकी साहित्य के प्रति रूचि घर में रहकर पैदा हुईं। उन्होंने अपने घर से ही हिन्दी, बांग्ला व संस्कृत साहित्य की पढ़ाई कीं। इस अवसर पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
गुप्त ने 12 साल की उम्र से ही साहित्य में हाथ आजमाना शुरू कर दिया और ब्रजभाषा में कविताएं लिखने लग गए। उनकी खड़ी बोली की कविताएं मासिक ‘सरस्वती’ में छपने लग गई। 1914 में उनकी रचनाएं ‘भारत-भारती’ और 1931 में आई ‘साकेत’ आज के समय में भी सार्थक मानी जाती है।
उनकी एक रचना-
‘आज भी जब दिनभर की परेशानी से थकता-ठिठकता कोई इंसान केवल,
यह सुनकर फिर जोश से खड़ा हो सकता है कि ‘नर हो न निराश करो मन को.’
गुप्त को देश की जनता एक कवि से ज्यादा राष्ट्रकवि के रूप में जानती है जिसका कारण है उनकी लिखी रचनाएं जो देश की आजादी के पहले लोगों में राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावना जगाती थी। उनकी रचनाएं आजादी के आंदोलनों की भाषा बन गए। गुप्त को राष्ट्रकवि बनाने का श्रेय महात्मा गांधी को जाता है। कवि के रूप में साल 1941 में उन्हें जेल की हवा खानी पड़ीं। ऐसे ही कवि हुए गुप्त जिनकी रचनाओं में भारत के अतीत और वर्तमान दोनों आज भी दिखाई देते हैं, जिनका राष्ट्रीय उत्थान में योगदान सालों तक याद किया जाएगा।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने प्रभावी लेखन से हिंदी साहित्य की बखूबी सेवा की और अपनी नायाब रचनाओं से उन्होंने देशभक्ति, नारी पीड़ा और समाज सुधार को प्रेरित किया। 12 दिसंबर, 1964 को 78 वर्ष की उम्र में भारत के इस महान कवि का निधन हो गया।
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