ये हुआ था

पुण्यतिथि: ‘मैं तुझे फिर मिलूँगी, कहाँ कैसे पता नही’.. पढ़िए अमृता प्रीतम की दिल छू लेने वाली कविताएं

साहित्य की दुनिया की जानी-मानी कवयित्री व लेखिका अमृता प्रीतम किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। अमृता उन कलमकारों में से एक थी, जिन्होंने अपने शब्दों की ताकत से साहित्य जगत को रोशन कर दिया। आज उनकी 17वीं पुण्यतिथि है। उनका निधन 31 अक्टूबर, 2005 को राजधानी दिल्ली में हुआ था। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, मगर अपनी रचनाओं में अमृता आज भी ज़िंदा हैं। अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त, 1919 को पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) में हुआ था। अमृता की डेथ ​एनिवर्सरी पर पढ़िए उनकी कुछ बेहतरीन कविताएं..

1. मैं तुझे फिर मिलूँगी

कहाँ कैसे पता नहीं

शायद तेरी कल्पनाओं

की प्रेरणा बन

तेरे केनवास पर उतरुँगी

या तेरे कैनवास पर

एक रहस्यमयी लकीर बन

ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी

मैं तुझे फिर मिलूँगी

कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर

तेरे रंगो में घुलती रहूँगी

या रंगो की बाँहों में बैठ कर

तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी

पता नहीं कहाँ किस तरह

पर तुझे ज़रूर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी

जैसे झरने से पानी उड़ता है

मैं पानी की बूंदें

तेरे बदन पर मलूँगी

और एक शीतल अहसास बन कर

तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती

पर इतना जानती हूँ

कि वक्त जो भी करेगा

यह जनम मेरे साथ चलेगा

यह जिस्म ख़त्म होता है

तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे

कायनात के लम्हें की तरह होते हैं

मैं उन लम्हों को चुनूँगी

उन धागों को समेट लूंगी

मैं तुझे फिर मिलूँगी

कहाँ कैसे पता नहीं

मैं तुझे फिर मिलूँगी!!

2. सिगरेट

यह आग की बात है

तूने यह बात सुनाई है

यह ज़िंदगी की वो ही सिगरेट है

जो तूने कभी सुलगाई थी

चिंगारी तूने दी थी

यह दिल सदा जलता रहा

वक़्त कलम पकड़ कर

कोई हिसाब लिखता रहा

चौदह मिनट हुए हैं

इसका ख़ाता देखो

चौदह साल ही हैं

इस कलम से पूछो

मेरे इस जिस्म में

तेरा साँस चलता रहा

धरती गवाही देगी

धुआं निकलता रहा

उमर की सिगरेट जल गयी

मेरे इश्के की महक

कुछ तेरी सांसों में

कुछ हवा में मिल गयी,

देखो यह आखिरी टुकड़ा है

ऊँगलीयों में से छोड़ दो

कही मेरे इश्कुए की आँच

तुम्हारी ऊँगली ना छू ले

ज़िंदगी का अब गम नही

इस आग को संभाल ले

तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ

अब और सिगरेट जला ले !!

3. मैंने पल भर के लिए

मैंने पल भर के लिए .. आसमान को मिलना था

पर घबराई हुई खड़ी थी ….

कि बादलों की भीड़ से कैसे गुजरूंगी ..

कई बादल स्याह काले थे

खुदा जाने कब के और किन संस्कारों के

कई बादल गरजते दिखते

जैसे वे नसीब होते हैं राहगीरों के

कई बादल शुकते ,चक्कर खाते

खंडहरों के खोल से उठते ,खतरे जैसे

कई बादल उठते और गिरते थे

कुछ पूर्वजों कि फटी पत्रियों जैसे

कई बादल घिरते और घूरते दिखते

कि सारा आसमान उनकी मुट्ठी में हो

और जो कोई भी इस राह पर आये

वह जर खरीद गुलाम की तरह आये ..

मैं नहीं जानती कि क्या और किसे कहूँ

कि काया के अन्दर –एक आसमान होता है

और उसकी मोहब्बत का तकाजा ..

वह कायनाती आसमान का दीदार मांगता है

पर बादलों की भीड़ का यह जो भी फ़िक्र था

यह फ़िक्र उसका नहीं –मेरा था

उसने तो इश्क की कानी खा ली थी

और एक दरवेश की मानिंद उसने

मेरे श्वाशों कि धुनी राम ली थी

मैंने उसके पास बैठ कर धुनी की आग छेड़ी

कहा-ये तेरी और मेरी बातें…

पर यह बातें..बादलों का हुजूम सुनेगा

तब बता योगी ! मेरा क्या बनेगा ?

वह हंसा…

नीली और आसमानी हंसी

कहने लगा..

ये धुंए के अम्बार होते हैं…

घिरना जानते

गर्जना भी जानते

निगाहों की वर्जना भी जानते

पर इनके तेवर

तारों में नहीं उगते

और नीले आसमान की देही पर

इल्जाम नहीं लगते…

मैंने फिर कहा..

कि तुम्हे सीने में लपेट कर

मैं बादलों की भीड़ से

कैसे गुजरूंगी ?

और चक्कर खाते बादलों से

कैसे रास्ता मागूंगी?

खुदा जाने ..

उसने कैसी तलब पी थी

बिजली की लकीर की तरह

उसने मुझे देखा,

कहा …

तुम किसी से रास्ता न मांगना

और किसी भी दीवार को

हाथ न लगाना

न ही घबराना

न किसी के बहलावे में आना

बादलों की भीड़ में से

तुम पवन की तरह गुजर जाना…

4. पहचान

तुम मिले

तो कई जन्म

मेरी नब्ज़ में धड़के

तो मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों का घूँट पिया

तब मस्तक में कई काल पलट गए..

एक गुफा हुआ करती थी

जहाँ मैं थी और एक योगी

योगी ने जब बाजुओं में लेकर

मेरी साँसों को छुआ

तब अल्लाह क़सम!

यही महक थी जो उसके होठों से आई थी–

यह कैसी माया कैसी लीला

कि शायद तुम ही कभी वह योगी थे

या वही योगी है–

जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है

और वही मैं हूँ… और वही महक है…

5. एक मुलाकात

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी

सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था… फिर समुद्र को खुदा जाने

क्या ख्याल आया

उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी

मेरे हाथों में थमाई

और हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….

पर उसका चमत्कार ले लिया

पता था कि इस प्रकार की घटना

कभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आये

माथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर

अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरी

मेरे शहर की हर छत नीची

मेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिले

तो समुन्द्र की तरह

इसे छाती पर रख कर

हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतों

और संकरी गलियों

के शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती

और अपनी आग का मैंने

आप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनारा

किनारे को गिरा दिया

और जब दिन ढलने को था

समुन्द्र का तूफान

समुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है

तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल

मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल

सिर्फ-दूर बहते समुद्र में तूफान है…।

श्रीलाल शुक्ल ने अपने उपन्यास से उघाड़ कर रख दी थी ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता की परत

Raj Kumar

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