साहसी पत्रकार, समाज-सेवी व प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी की 26 अक्टूबर को 133वीं जयंती है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में योगदान देने वालों में उनका नाम भी दर्ज हैं। गणेशशंकर एक ऐसे निर्भीक पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी लेखनी की ताकत से भारत में ब्रिटिश शासन की नींद उड़ा दी थी। इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों को समान रूप से समर्थन व सहयोग देने का काम किया था।
उन्होंने अपने छोटे जीवन-काल के दौरान अंग्रेजों के उत्पीड़न व क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाईं। गणेश शंकर विद्यार्थी ने हमेशा से ही अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ को बुलंद किया था। इस खास अवसर पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुने किस्से…
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) स्थित अतरसुइया मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था जो हथगांव, (फतेहपुर, यूपी) के रहवासी थे। गणेश शंकर के पिता एक गरीब और धार्मिक प्रवित्ति पर अपने उसूलों के पक्के इंसान हुआ करते थे। वे ग्वालियर रियासत में मुंगावली के एक स्कूल में हेडमास्टर थे।
इस कारण गणेश शंकर का बाल्यकाल वहीं बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी यहीं हुईं। गणेश शंकर की पढ़ाई की शुरुआत उर्दू से हुई और उन्होंने वर्ष 1905 में भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। विद्यार्थी ने वर्ष 1907 में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में एंट्रेंस परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में दाखिला लिया।
इसी समय में उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ। वह प्रसिद्ध लेखक पंडित सुंदर लाल के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के संपादन में सहायता करने लगे। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण गणेश शंकर विद्यार्थी ने लगभग एक वर्ष तक अध्ययन के बाद वर्ष 1908 में कानपुर के करेंसी ऑफिस में 30 रुपए महीने की नौकरी की। मगर इस दौरान एक अंग्रेज अफसर से कहा-सुनी हो जाने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी व कानपुर के पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में वर्ष 1910 तक अध्यापन का कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने नियमित रूप से ‘सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता’ जैसे प्रकाशनों में अपने लेख लिखने जारी रखे।
गणेश शंकर विद्यार्थी का मन शुरू से ही पत्रकारिता और सामाजिक कार्यों में लगता था। इसलिए वे अपने जीवन की शुरुआत में ही भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गए थे। जल्द ही गणेश विद्यार्थी ‘कर्मयोगी’ और ‘स्वराज्य’ जैसे क्रांतिकारी पत्रों से जुड़े व इनमें लगातार अपने लेख भी लिखे। उन्होंने इसी दौरान ‘विद्यार्थी’ उपनाम अपनाया और इसी नाम से लिखने लगे।
कुछ समय बाद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता जगत के अगुआ पंडित महाबीर प्रसाद द्विवेदी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, जिन्होंने विद्यार्थी को वर्ष 1911 में अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उप-संपादक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव दिया। लेकिन विद्यार्थी की रुचि सम-सामयिकी और राजनीति में ज्यादा थी, इसलिए उन्होंने हिंदी साप्ताहिकी ‘अभ्युदय’ में नौकरी ज्वॉइन की।
वर्ष 1913 में गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर वापस लौट गए और एक क्रांतिकारी पत्रकार और स्वाधीनता कर्मी के तौर पर अपना करियर शुरू किया। उन्होंने क्रांतिकारी पत्रिका ‘प्रताप’ की स्थापना की और उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद किया। प्रताप के माध्यम से उन्होंने पीड़ित किसानों, मिल मजदूरों और दबे-कुचले गरीबों के दुखों को उजागर किया। अपने क्रांतिकारी पत्रिकारिता के कारण उन्हें बहुत कष्ट झेलने पड़े। ब्रिटिश सरकार ने उनपर कई मुक़दमे किए, भारी जुर्माना लगाया और कई बार गिरफ्तार कर जेल में डाला।
वर्ष 1916 में महात्मा गांधी से विद्यार्थी की पहली मुलाकात हुई, जिसके बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आंदोलन में समर्पित कर दिया। उन्होंने वर्ष 1917-18 में ‘होम रूल’ आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मिल मजदूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व भी किया। वर्ष 1920 में उन्होंने अपनी पत्रिका ‘प्रताप’ का दैनिक संस्करण प्रारंभ किया और उसी साल उन्हें रायबरेली के किसानों के हितों की लड़ाई करने के लिए 2 साल के कठोर कारावास की सज़ा हुईं।
वर्ष 1922 में गणेश शंकर विद्यार्थी जेल से रिहा हुए पर सरकार ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने के आरोप में फिर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था। वर्ष 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था। बावजूद इसके वे जी-जान से कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन (1925) की तैयारी में जुट गए।
वर्ष 1925 में कांग्रेस के राज्य विधानसभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर से उत्तरप्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए और वर्ष 1929 में त्याग-पत्र दे दिया, जब कांग्रेस ने विधान सभाओं को छोड़ने का फैसला लिया था। वर्ष 1929 में ही उन्हें यूपी कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया और यूपी में सत्याग्रह आंदोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी भी सौंपी गईं। वर्ष 1930 में उन्हें गिरफ्तार कर एक बार फिर जेल भेज दिया गया, जिसके बाद उनकी रिहाई गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च, 1931 को हुई थी।
मार्च 1931 में कानपुर में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, जिसमें हजारों लोग मारे गए। गणेश शंकर विद्यार्थी ने दंगाइयों के बीच जाकर हजारों लोगों को बचाया, मगर खुद एक ऐसी हिंसक भीड़ में फंस गए जिसने उनकी बेरहमी से हत्या कर दी। एक ऐसा मसीहा जिसने हजारों लोगों की जाने अपने जोखिम पर बचायी थी, वो खुद ही धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गया। इस तरह 25 मार्च, 1931 को विद्यार्थी की हत्या हो गई। भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी को एक बड़े क्रांतिकारी के रूप में देखा जा रहा था।
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