राजनेता व भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रसिद्ध बंगाली क्रांतिकारी गणेश घोष की 22 जून को 123वीं जयंती है। उन्होंने गांधीजी द्वारा संचालित आंदोलन में भाग लिया था। गणेश घोष ने प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी सूर्य सेन के साथ चटगांव शस्त्रागार पर धावा बोला और उसे लूट लिया। इन्होंने वहां राष्ट्रीय सरकार बनाने में भी अहम भूमिका निभाई थी। कई वर्षों तक जेल में सज़ा काटने के बाद वो रिहा हुए और फिर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर राजनीति में सक्रिय हो गए। इस अवसर पर जानिए क्रांतिवीर गणेश घोष के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
भारतीय स्वतंत्रता क्रांतिकारी गणेश घोष का जन्म 22 जून, 1900 में बंगाल प्रांत के चट्टोग्राम (चटगॉंव, बांग्लादेश) में हुआ था। शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही वो देश की आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। वर्ष 1922 में गया कांग्रेस में जब बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया गया तो गणेश घोष और उनके साथी अनंत सिंह ने नगर का सबसे बड़ा विद्यालय बंद करा दिया था। इन दोनों युवाओं ने चटगांव की सबसे बड़ी मजदूर हड़ताल की भी अगुवाई की। जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया तो घोष ने जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश ले लिया।
परंतु वर्ष 1923 में उन्हें ‘मानिकतल्ला बम कांड’ के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया। कोई प्रमाण न मिलने के कारण उन्हें सजा तो नहीं हुई पर सरकार ने 4 साल के लिए नजरबंद कर दिया था। वर्ष 1928 में वह कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में शामिल हुए। बाद में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्य सेन से हुई और उनके साथ शस्त्र बल से अंग्रेजों की सत्ता समाप्त करने के लिए चटगांव में राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की तैयारी करने लगे। पूरी तैयारी के बाद इन क्रांतिकारियों ने वहां के शस्त्रागार और टेलीफोन, तार आदि को बाधित कर दिया और महत्वपूर्ण स्थानों पर धावा बोल दिया।
उनका इरादा शस्त्रागार पर कब्जा करके फिर ब्रिटिश सरकार के सैनिकों का सामना करने का था। इस अचानक आक्रमण से अधिकारी एक बार तो सकते में आ गए। क्रांतिकारियों को शस्त्रागार से शस्त्र तो मिल गए, परंतु गोला-बारूद जिसे अंग्रेजों ने दूसरी जगह छिपा रखे थे, वो नहीं मिल सके। इसलिए क्रांतिकारी सरकार की घोषणा करने के बाद भी ये उसे कायम नहीं रख सके और उन्हें सूर्य सेन के साथ जलालाबाद की पहाड़ियों में चले जाना पड़ा।
ब्रिटिश सरकार के शस्त्रागार को लूटने के बाद इस मामले में बचने के प्रयास में गणेश घोष अपने साथियों से बिछड़ गए और फ्रांसीसी बस्ती चंद्र नगर चले गए थे। वहां से गिरफ्तार करके उन्हें कोलकाता लाया गया और वर्ष 1932 में आजीवन कारावास की सजा देकर अंडमान जेल भेज दिए गए। वहां कम्युनिस्ट विचारधारा से काफी प्रभावित हुए। गणेश घोष वर्ष 1946 में जेल से छूटने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के सदस्य बन गए और यहीं से उनका राजनीति में जाने का रास्ता खुल गया।
वर्ष 1964 में जब कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तो गणेश घोष मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में सम्मिलित हो गए। घोष वर्ष 1952, 1957 और 1962 में बंगाल विधानसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुने गए। वर्ष 1967 में वो कलकत्ता दक्षिण से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के टिकट पर जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे। वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में घोष फिर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के कलकत्ता दक्षिण लोकसभा क्षेत्र से ही उम्मीदवार थे। लेकिन इस बार वो 26 वर्षीय प्रियरंजन दास मुंशी से हार गए, जिन्होंने अपना पहला लोकसभा चुनाव कांग्रेस (आर) के टिकट पर लड़ा था।
देश की आजादी में अहम योगदान देने के बाद सीपीआई और सीपीएम पार्टी के नेता रहे गणेश घोष का 16 अक्टूबर, 1994 को कोलकाता में निधन हो गया।
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