चुनावी मौसम में नेताओं के लिए पाले बदलना कोई नई बात नहीं है लेकिन वर्तमान के राजनीतिक हालातों को देखें तो दल-बदल की राजनीति इतनी हावी हो गई है कि नेता बिना जनता का शर्म-संकोच किए मनचाहे दल में जा रहे हैं।
जो नेता परसों तक किसी दल के नेताओं को गालियां निकालते हैं, उस दल की आलोचना करते थकते नहीं है वो अगली शाम उसी दल की शपथ लेते दिखाई देते हैं। यह किसी को भी हैरान कर सकता है और यह सवाल पूछने पर आपको मजबूर भी कर सकता है कि क्या इन नेताओं का कोई ईमान नहीं होता क्या?
कुछ समय पहले भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस के दिग्गज नेता टॉम वडक्कन, अभिनेत्री जया प्रदा सपा से भाजपा में आई, वहीं टिकट ना मिलने से नाराज शत्रुघ्न सिन्हा की भी आरजेडी में जाने की चर्चाएं तेज हैं, इन नामों की फेहरिस्त चुनाव नजदीक आते-आते और लंबी होने वाली है, इस बात में कोई 2 राय नहीं है।
आपने कभी सोचा होगा आखिर क्यों नेताओं की दल बदलू राजनीति चुनाव के समय हावी हो जाती है, आइए कुछ कारण हम आपको बताते हैं।
– मनचाही जगह से टिकट ना मिलना
कोई भी नेता हर बार अपनी पसंद की जगह से चुनाव लड़ना चाहता है। ऐसे में जब उन्हें मनचाही जगह से टिकट नहीं मिलता है तो वो आलाकमान से नाराज हो जाते हैं। इसलिए कुछ नेता अपनी मनपसंद सीट से चुनाव लड़ने की उम्मीद में नया दल जॉइन कर लेते हैं।
– राजनीतिक दल हमेशा करते हैं स्वागत
हर पार्टी अपने सभी उम्मीदवारों की जीत चाहती है ऐसे में राजनीतिक दल हमेशा अपने विरोधी दलों का मनोबल तोड़ने के लिए उनके नेताओं का स्वागत करने के लिए तैयार रहते हैं। राजनीति में नेताओं को सीट जीतने के इतर सब कुछ जायज ही लगता है।
– बेवकूफ जनता!
नेताओं की दल बदल राजनीति में जनता का भी अहम रोल है क्योंकि जनता अपने नेताओं का वैचारिक तौर पर आंकलन नहीं करती है, अधिकांश लोग चेहरा या नाम देखकर वोट दे आते हैं जबकि पार्टी भी कई मायने रखती है। जनता के इस लचीलेपन का फायदा ही इन दल बदलू नेताओं को मिलता है।
आखिर में एक बात और…
ये बात समझ लो – कोई नेता बड़ा या छोटा नहीं होता है!
अगर आप राजनीतिक में रूचि ना भी रखते होंगे तो एक बात आपने जरूर गौर की होगी। जब भी कोई नेता किसी पार्टी को छोड़ता है तो छोड़ने वाली पार्टी उसे कभी दिग्गज नेता नहीं बताती है, वो हर बार यही कहती दिखाई देती है कि इससे पार्टी को कुछ नुकसान नहीं होगा, वहीं दूसरी ओर जो पार्टी स्वागत करती है वो उसकी तारीफ में कुर्बान हो जाती है।
चुनावी दौर में जब नेता कुर्ता पायजमा की तरह दल और विचारधारा बदलने लग जाएं तो समझ लीजिए कि उनकी राजनीतिक महज निजी स्वार्थों पर टिकी हुई है ना कि जनता की भलाई और सेवा पर।
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