दादा साहब फाल्के ने फिल्म ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखने के बाद तय कर लिया था फिल्मकार बनना

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जब भी हम भारतीय सिनेमा में इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो सुनहरे अक्षरों में लिखा एक नाम हमारे सामने जरूर आता है। जी हां, भारतीय सिनेमा की नींव रखने वाले धुंडिराज गोविंद फाल्के जिन्हें दुनिया दादा साहब फाल्के के नाम से जानती हैं। दादा साहब का योगदान भारतीय सिनेमा में अतुलनीय था। उन्हें ‘फादर ऑफ़ इंडियन सिनेमा’ कहा जाता है। अपने जीवन की पहली फिल्म देखने के दौरान ही फाल्के ने निर्णय कर लिया था कि उनकी ज़िंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। 30 अप्रैल को दादा साहब फाल्के की 153वीं बर्थ एनिवर्सरी है। इस ख़ास अवसर पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

बचपन से ही थी कला में रुचि

भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल, 1870 को नासिक जिले के त्र्यम्बकेश्वर गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। फाल्के बचपन से ही चित्रकला, नाट्य, अभिनय और जादूगरी में काफ़ी रुचि रखते थे। उन्होंने स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 1885 में मुंबई के सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में एडमिशन लिया। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद दादा साहब फाल्के बड़ौदा पहुंचे। वहां उन्होंने कला भवन से इंजीनियरिंग, पेंटिंग और फोटोग्राफी का हुनर सीखा।

शुरुआती दिनों में फोटोग्राफी किया करते थे फाल्के

दादा साहब फाल्के अपने कॅरियर के शुरुआती दिनों में फोटोग्राफी किया करते थे। फोटोग्राफर के तौर पर काम करने के दौरान उन्हें मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ भी काम करने का मौका मिला था। आखिरकार, सिनेमा के लिए उनकी ललक उन्हें वर्ष 1909 में वहां ले गई, जिसके लिए उनका जन्म हुआ था। उन्होंने जर्मनी से सिनेमा की शुरुआत कीं। वर्ष 1910 में दादा साहब ने ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ फिल्म देखी थी, उसके बाद ही फाल्के साहब ने उसी लाइन में आगे काम करने का मन बन लिया था।

सिनेमा में महिलाओं को आगे लाने का जाता है श्रेय

वर्ष 1912 में दादा साहब फाल्के ने पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाईं, जिसे भारत की पहली फिल्म भी माना जाता है। उस समय इस फिल्म को बनाने का कुल खर्चा 15 हजार रुपए आया था। दादा साहब को सिनेमा में महिलाओं को आगे लाने के लिए भी जाना जाता है। कहा जाता है कि महिलाओं को मौका देने में दादा साहब हमेशा आगे रहते थे। दादा साहब फाल्के ने पहली बार फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में दो औरतों दुर्गा और कमला को काम दिया, इससे पहले सिनेमा में औरतों का रोल पुरूष ही निभाया करते थे।

25 साल के करियर में बनाई सौ से ज्यादा फिल्में

दादा साहब फाल्के ने अपने करीब 25 साल के फिल्मी करियर में 100 से ज्यादा फिल्में बनाईं। 16 फ़रवरी, 1944 को 73 साल की उम्र में दादा साहब ने आखिरी सांस लीं। भारत सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ समारोह के मौके पर सिनेमा जगत में उनकी याद में सबसे बड़ा सम्मान ‘दादा साहब फाल्के‘ अवॉर्ड देता है, जिसकी शुरुआत वर्ष 1969 में फाल्के की 100वीं जयंती पर की गई थी।

भारतीय सिनेमा में लाइफटाइम उल्लेखनीय योगदान के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। इसमें पुरस्कार विजेता को भारत के राष्ट्रपति द्वारा एक स्वर्ण कमल पदक, एक शॉल और 10 लाख रुपए नकद दिए जाते हैं।

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