ये हुआ था

नेताजी बोस से लेकर सीताराम केसरी तक कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए विवादों का इतिहास!

राहुल गांधी ने 25 मई को आयोजित कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के दौरान पार्टी प्रमुख के रूप में इस्तीफा देने की इच्छा व्यक्त की थी, लेकिन पार्टी के सबसे शक्तिशाली निकाय के सदस्यों ने सर्वसम्मति से उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। यह परिस्थिति लोकसभा चुनाव में बुरी हार के बाद आई हैं जहां कांग्रेस पार्टी 52 सीटों पर ही सिमट गई।

खबरों के मुताबिक, राहुल गांधी ने यहां तक सुझाव दिए हैं कि गांधी परिवार का कोई अन्य सदस्य भी पार्टी का नेतृत्व नहीं करेगा।

रिपोर्टों में कहा गया है कि जब तक अध्यक्ष पद के लिए दूसरा दावेदार नहीं मिल जाता तब तक राहुल गांधी को अध्यक्ष के रूप में रहने की सलाह दी गई है।

वर्ष 2017 में पार्टी अध्यक्ष के रूप में बिना किसी विरोध के चुने गए राहुल गांधी आजादी के बाद से 16वें कांग्रेस अध्यक्ष हैं और पार्टी का नेतृत्व करने वाले नेहरू-गांधी परिवार के छठे व्यक्ति हैं।

उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनावों के दौरान तीन हिंदी भाषी राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को हराने में कामयाबी हासिल की। लेकिन कुछ महीनों बाद ही आम चुनावों में ना केवल कांग्रेस को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा, बल्कि बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनावों के मुकाबले ज्यादा सीटें हासिल कीं। नतीजों से पता चलता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी मजबूत नहीं हुई है।

इसके बावजूद कई शीर्ष नेता उन्हें पार्टी की खातिर अध्यक्ष पद पर बने रहने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं है जब पार्टी इस तरह के संकट का सामना कर रही है। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद को लेकर कई बार विवाद उठे हैं।

जब महात्मा गांधी ने नेताजी बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया

इतिहासकार बताते हैं कि 1930 के दशक के दौरान वामपंथियों की कांग्रेस में महत्वपूर्ण उपस्थिति थी जिसने 1938 में गुजरात के हरिपुरा में कांग्रेस के 58वें वार्षिक सत्र के दौरान सुभाष चंद्र बोस को पार्टी अध्यक्ष के रूप में चुना।

बताया जाता है कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल जैसे अधिकांश वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के समर्थन से ही सुभाष चन्द्र बोस इस पद पर जीते।

एक साल बाद, पार्टी के त्रिपुरी सत्र के दौरान बोस ने महात्मा गांधी के खिलाफ विद्रोह किया और फिर से इस पद के लिए चुनाव में खड़े हुए। महात्मा गांधी ने स्पष्ट कर दिया था कि वह बोस को दोबारा चुनना नहीं चाहते थे।

बोस ने चुनाव पट्टाभि सीतारमैय्या को हराकर जीता वो भी 205 मतों से। बोस ने अंग्रेजों के साथ सहयोग के मुद्दे पर अपने चुनाव अभियान को आधार बनाया था। बोस अंग्रेजों के साथ किसी भी तरह के तालमेल के खिलाफ थे वहीं महात्मा गांधी सरकार के एक नए रूप के लिए उनके साथ सहयोग करना चाहते थे।

बोस की जीत ने गांधी को झकझोर कर रख दिया। गांधी ने एक पत्र में घोषणा की कि हार उनकी तुलना में मेरी ज्यादा है।

अपनी पुस्तक ‘द मैन हू सेव्ड इंडिया’ में पत्रकार हिंडोल सेनगुप्ता ने लिखा है कि बोस की स्थिति को कमज़ोर करने के लिए गांधी ने एक सार्वजनिक बयान भी जारी किया जिसमें युद्ध के अभियोजन में ब्रिटेन के साथ बिना शर्त सहयोग की वकालत की गई थी। इसके विपरीत बोस ने राष्ट्रपति के रूप में, ब्रिटिश राज के खिलाफ एक बड़े पैमाने पर सविनय अवज्ञा की मांग की।

महात्मा गांधी की दबाव की रणनीति ने काम किया और बोस और उनके भाई शरत चंद्र बोस को छोड़कर कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। बिना किसी विकल्प के साथ बोस ने अंततः 1939 में पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और राजेंद्र प्रसाद ने पदभार संभाल लिया।

नेहरू की वजह से पुरुषोत्तमदास टंडन ने इस्तीफा दे दिया

साल 1949 खत्म होने ही वाला था और भारत एक बड़े परिवर्तन की ओर था। उसी दौरान नेहरू और उनके डिप्टी पटेल के बीच गंभीर मतभेद उभरे।

नेहरू उस वक्त के गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। और उन्हें यह आश्वासन भी दिया था कि उन्हें इस पद के लिए नामित किया जाएगा। वहीं पटेल ने राजेंद्र प्रसाद का समर्थन किया।

चूंकि प्रसाद, जिनके पास पटेल का समर्थन था कांग्रेस में राजगोपालाचारी की तुलना में अधिक लोकप्रिय थे, इसके बाद नेहरू को यही स्वीकार करना पड़ा।

कुछ महीनों बाद, नेहरू और पटेल के बीच एक और असहमति उत्पन्न हुई कि किसे स्वतंत्र भारत का पहला कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। पटेल ने पुरुषोत्तमदास टंडन की सिफारिश की थी जिसे नेहरू एक दाढ़ी वाला रूढ़िवादी हिंदू मानते थे।

अपनी पुस्तक, इंडिया आफ्टर गांधी में इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि कैसे नेहरू ने भारत के सभी क्षेत्रों में हिंदी को थोपने के लिए टंडन की आलोचना की थी। शरणार्थियों के सम्मेलन में पाकिस्तान के खिलाफ बदला लेने की बात कहने के कारण भी नेहरू टंडन से नाराज थे।

गुहा अपनी किताब में लिखते हैं कि नेहरू का मानना था कि भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सामंजस्य की नीति की जरूरत है। प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी के प्रमुख राजनीतिक दल के अध्यक्ष के रूप में टंडन का चुनाव लोगों के बीच गलत संकेतों को भेज सकता था।

नेहरू के विरोध के बावजूद टंडन ने 1950 में कांग्रेस के वार्षिक सत्र में आसानी से जीत हासिल की। इसने नेहरू को इतना परेशान किया कि उन्होंने राजगोपालाचारी को लिखा कि उन्हें लगा कि टंडन का चुनाव पार्टी में उनकी उपस्थिति से अधिक महत्वपूर्ण महसूस हो रहा था।

नेहरू ने इस्तीफा देने की धमकी दी। और दावा किया कि कांग्रेस पार्टी के प्रमुख के रूप में टंडन के पार्टी में रहते हुए सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताकतों का बहुत अधिक प्रभाव था। इस घटना के कुछ महीनों के बाद, दिसंबर 1950 में पटेल का बंबई में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।

लगभग नौ महीने बाद, नेहरू के साथ मतभेद के कारण टंडन ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। 8 सितंबर, 1951 को कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर नेहरू को अपना नया अध्यक्ष घोषित किया।

लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के पीएम पद के लिए कामराज की भूमिका

27 मई, 1964 को नेहरू का निधन हो गया जिसके बाद कांग्रेस को उत्तराधिकारी खोजने की चिंता सताने लगी। हालांकि गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला। पार्टी नेतृत्व उन लोगों की तलाश में था जो स्थिर सरकार सुनिश्चित करने के लिए पार्टी में तालमेल बिठाए रख सकें।

कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज को भारत का अगला प्रधानमंत्री खोजने का काम सौंपा गया था। उन्होंने कई मुख्यमंत्रियों सहित पार्टी के शीर्ष नेताओं का साक्षात्कार करना शुरू किया।

इन चर्चाओं के दौरान जो नाम सामने आए, उनमें से एक गुजरात के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई थे जिन्हें एक सक्षम प्रशासक के रूप में देखा जाता था और जो काम संभालने के इच्छुक भी थे।

हालांकि, राष्ट्रीय और राज्य के नेताओं के साथ अपनी बातचीत के दौरान, कामराज ने महसूस किया कि लाल बहादुर शास्त्री का नेतृत्व देसाई की तुलना में अधिक स्वीकार्य था। यह महसूस करते हुए, कामराज ने देसाई से अपना मानस बदल दिया और उन्होंने शास्त्री को 1964 में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई।

लेकिन ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर करने के बाद शास्त्री का दो साल बाद दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस के भीतर सत्ता संघर्ष का दौर फिर शुरू हो गया।

देसाई को अपना दावा इस बार मजबूत दिख रहा था लेकिन कामराज के पास अन्य योजनाएँ थीं। वह शीर्ष पद के लिए इंदिरा गांधी को चाहते थे और उन्होंने वरिष्ठ नेताओं के साथ पर्दे के पीछे रहकर पद के लिए उनके नाम का समर्थन किया। देसाई ने पार्टी के नेताओं के साथ भी लॉबिंग की लेकिन वह इंदिरा गांधी के इस दावे से बौखला गए कि वह नेहरू की बेटी हैं। 19 जनवरी, 1966 को कांग्रेस संसदीय दल ने इंदिरा गांधी के पक्ष में मतदान किया जिससे वह भारत की तीसरी प्रधानमंत्री बनीं।

जब वीवी गिरि पर इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन किया

एक साल बाद, जाकिर हुसैन को भारत के तीसरे राष्ट्रपति के रूप में चुना गया। हालांकि, दो साल बाद 1969 में उनकी मृत्यु हो गई। अगले राष्ट्रपति को चुने जाने की वजह से कांग्रेस के भीतर युद्ध छिड़ गया। जहां एक गुट का नेतृत्व कांग्रेस नेताओं की पुरानी पीढ़ी कर रही थी, वहीं दूसरे दल का नेतृत्व इंदिरा गांधी कर रही थीं।

कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद के लिए नीलम संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार घोषित किया था जबकि वराह गिरि वेंकट गिरि (वीवी गिरि) ने निर्दलीय के रूप में अपना नामांकन पत्र दाखिल किया था। पार्टी नेतृत्व को धता बताते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपना मानस गिरि के लिए ही बनाया।

तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा ने पार्टी लाइन को खत्म करने के लिए इंदिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया। हालांकि तब तक इंदिरा गांधी बड़ी संख्या में पार्टी के नेताओं और सांसदों का समर्थन हासिल करने में सफल रही।

इंदिरा गांधी के कांग्रेस से निष्कासन के वाबजूद भी उन्हें कांग्रेस के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाना जाता था। अत: बाद में इंदिरा समर्थित धड़ा कांग्रेस (इंदिरा) बन गई। पुराने नेतृत्व वाले गुट को कांग्रेस (संगठन) के रूप में जाना जाता था, जिसका नेतृत्व निजलिंगप्पा कर रहे थे।

इंदिरा गांधी के गुट में 220 सांसद शामिल हुए जो संसद में बहुमत से महज 45 सीटों से कम था। उसने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और निर्दलीय उम्मीदवारों से समर्थन मांगा जिससे उसे बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने में मदद मिली। सन् 1971 के आम चुनावों में वह भारी बहुमत से सत्ता में लौटीं।

जब केसरी को अपने निष्कासन की भनक तक नहीं लगी

सन् 1991 में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी और उस वर्ष आम चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। पीवी नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, जिससे वाम दलों द्वारा समर्थित गठबंधन सरकार का गठन हुआ।

उस समय कांग्रेस के नेताओं ने पार्टी की कमान संभालने के लिए सोनिया गांधी से अपील की थी लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। बाद में राव को कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया। सन् 1996 के चुनावों में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन और राव के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद पार्टी के नेताओं ने राव से पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे की मांग की। राव ने उस वर्ष सितंबर में पार्टी के प्रमुख पद से इस्तीफा दे दिया और सीताराम केसरी को उनकी जगह चुना गया।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को पार्टी में और अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए साथ देना जारी रखा। सन् 1997 में सोनिया गांधी ने घोषणा की कि वह 1998 के लोकसभा चुनावों के दौरान पार्टी के लिए प्रचार करेंगी।

केसरी अभी भी कांग्रेस के अध्यक्ष थे लेकिन सोनिया गांधी को पदभार संभालने की अनुमति देने के लिए उन पर दबाव बढ़ रहा था।

हालांकि, केसरी इतनी आसानी से नहीं जाना चाहते थे। 14 मार्च, 1998 को वह कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भाग लेने के लिए 24 अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय पहुंचे। उन्हें विश्वास था कि एक निर्वाचित अध्यक्ष को हटाना पार्टी के संविधान के विरुद्ध होगा।

बैठक में तारिक अनवर को छोड़कर किसी और ने उनका अभिवादन नहीं किया। इसके बाद प्रणब मुखर्जी ने उनकी सेवाओं के लिए केसरी को धन्यवाद देते हुए एक प्रस्ताव पढ़ना शुरू किया।

केसरी को इस बात का पता नहीं था कि कांग्रेस कार्यसमिति के अधिकांश सदस्यों की बैठक निर्धारित बैठक से पहले मुखर्जी के आवास पर हो चुकी थी, जिसने कार्यसमिति ने केसरी को उनकी सेवाओं के लिए धन्यवाद देने के लिए एक प्रस्ताव पारित करने के लिए सहमति बनाते हुए सभी सदस्यों ने इस बात पर मुहर लगाई कि सोनिया गांधी पार्टी का कार्यभार संभालेंगी।

केसरी बैठक छोड़ कर ही चले गए। सोनिया गांधी ने 19 वर्षों तक अध्यक्ष के रूप में कार्य किया और कांग्रेस की सबसे लंबी सेवा करने वाली अध्यक्ष रही। सन् 2017 में उन्होंने अपने बेटे राहुल को पार्टी अध्यक्ष का कार्यभार सौंपा।

Neha Chouhan

12 साल का अनुभव, सीखना अब भी जारी, सीधी सोच कोई ​दिखावा नहीं, कथनी नहीं करनी में विश्वास, प्रयोग करने का ज़ज्बा, गलत को गलत कहने की हिम्मत...

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