‘दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं आजाद ही रहेंगे’
जब भी ये लाइनें हमारे कानों के पर्दों पर गूंजती हैं तो भारत माता के वीर सपूत चंद्रशेखर आजाद की तस्वीर आंखों के सामने उभर आती है। किसी के लिए ये सिर्फ दो लाइन हो सकती है लेकिन आजाद ने इन दो लाइनों को अपनी जिंदगी बनाया था। इस युवा क्रांतिकारी के सिर आजादी का इस कद्र जुनून सवार था कि इनका नाम भी आजाद पड़ा। महज 24 बरस की जिंदगी में आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला कर रख दिया।
घरवाले चाहते थे चंद्रशेखर बने पंडित
मध्य प्रदेश के भाबरा गांव में सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर 23 जुलाई, 1906 को चंद्रशेखर का जन्म हुआ। ब्राह्मण परिवार में पैदा होने के कारण चंद्रशेखर के घरवाले शुरू से ही उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहते थे, लेकिन चंद्रशेखर की किस्मत ने तो कुछ और ही तय कर रखा था और उनके दिल में तो आजादी की लौ बचपन में ही जल उठी थी।
15 साल की उम्र में पकड़ ली आंदोलन की राह
महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद जब देश में आजादी की मांग तेज होने लगी तो गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया जिसमें 1921 में असहयोग आंदोलन की शुरूआत हुई। लोगों में गांधी के आंदोलन को लेकर जोश था ऐसे में 15 साल की उम्र में चंद्रशेखर ने भी आंदोलन की राह पकड़ ली।
असहयोग आंदोलन के खत्म की घोषणा ने बदल दी आजाद की जिंदगी
1922 में हुए चौरी-चौरा कांड से नाराज होकर गांधी ने अपना आंदोलन वापस लेने के साथ ही आजाद पर इसका गहरा असर पड़ा। आजाद ने उसी दिन उग्र आंदोलन का रास्ता अपना लिया और हथियार उठा लिए। बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) से जुड़ गए और अंग्रेजी हुकूमत को अहिंसा के रास्ते बाहर करने की ठान ली।
एचआरए से जुड़ने के बाद आजाद ने संगठन के साथ मिलकर सरकारी खजानों की लूट, काकोरी ट्रेन लूट और 1928 में जेपी सांन्डर्स पर फायरिंग जैसे कारनामों को अंजाम दिया।
मरते दम तक रहे ‘आजाद’
आजाद के साथियों को फांसी की सजा होने के बाद आजाद पहचान छुपाकर रहने लगे। 27 फरवरी, 1931 को अंग्रेजों को आजाद के ठिकाने का पता चल गया। चारों तरफ से घिर जाने के बाद आजाद के पास भागने का कोई भी रास्ता नहीं बचा था।
अंग्रेजों ने उन्हें देखते ही गोलियां बरसाना शुरू कर दिया, आजाद ने डटकर उनका सामना किया। अपनी बंदूक की आखिरी गोली तक वो लड़ते रहे। सब कुछ खत्म होने के बाद आजाद ने अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली अपने ही सीने में खुद उतार दी। अंग्रेजों की गिरफ्त से आखिर तक आजाद रहे।
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