क्या तुम्हे फर्क पड़ता है तुम्हारा हीरो वुमनाइजर है या तुम फिर एक हैप्पी एंडिंग देखकर ही खुश हो गए ? क्या तुम्हे फर्क पड़ता है कि तुम्हारा हीरो एक लड़की का नाम पता करने से पहले उस पर “मेरी बंदी” का टैग चिपका देता है या फिर तुम कॉलेज रोमांस वाला कोई मोमेंट लेकर सिनेमा हॉल से निकल गए ?
बात शुरू करने से पहले इतने सवाल इसलिए क्योंकि सवालों के बिना सारे किस्से अधूरे से हैं! फ़िल्म कबीर सिंह की बात कर रहा हूं वैसे, जिसमें हीरो के पास सब कुछ है, स्टाइल है, टॉपर है, दाढ़ी है, बुलेट चलाता है, चेहरे पर एक कॉलेज लौंडे वाला गर्म खून टाइप एग्रेशन है, अब और क्या चाहिए, हां, एक और बड़ी वाली सिगरेटें भी जमकर फूंकता है !
हां, वो इंजीनियर बिरादरी से होने के नाते मेडिकल वाले नशों पर कुछ ज्यादा नहीं बोल पाऊंगा। (समझ गए तो ठीक, वरना रहने दो)
हीरो की एंट्री वगैरह करवाने के लिए सब कुछ है, पर प्यार कहां है, अब मासूम से चेहरे वाली हीरोइन की एंट्री और हीरो अपना स्टाइलिश है ही बस बन गई इंटेंस कंटेम्पररी लव-स्टोरी जो हर दूसरी साउथ की फ़िल्म में मिल ही जाती है।
तो देखो हीरो ने लड़की की तरफ़ इशारा कर दिया, लगा दो वहीं टैग, प्यार का क्या है हो जाएगा धीरे-धीरे ! और लड़की का क्या ? किसने किया ये सवाल, उसको बोलो अपनी ज़ुबान बंद रखे !
अब ये लड़की हीरो की “बंदी” हो गई है, उसको इसी नाम से पहचाना जाएगा समझे। लड़की को प्यार कब होगा या कैसे होगा ये बताने के लिए हमारे पास टाइम नहीं है ! फिलहाल तुम बस हीरो की शिद्दत वाली लव स्टोरी के मजे लूटो !
लव स्टोरी है, तो सब होगा, हीरो हर किसी से लड़ेगा भी, किसी की सुनेगा नहीं और प्यार वाले सारे रूमानियत, जिस्मानी पल सजे हुए हैं, हां, किसी रिश्ते में जिस्मानी मिनट लाइफ लॉन्ग होते हैं, लेकिन जब हीरो कहता है जा अपने बाप को बता मैंने कितनी बार उसके साथ “वो” किया है, तब भी सब नॉर्मल ही है क्या ? क्या उस “वो” के नंबर पर उस रिश्ते की नींव टिकी है ?
चलो किसी ने कहा शिद्दत वाली मोहब्बत थी, तो भईया कौनसी शिद्दत, जिसमें एक तरफ तुम्हारा हीरो कहता है जा अपने बाप से अपनी शादी की बात कर, एक महिला बनकर, एज ए वुमन, थोड़ी देर बाद कहता है तेरी क्या औकात है, तू मेरी बंदी है, तेरी यही पहचान है !
सुनो सारे दिलजले आशिक, कहानी के खत्म होने तक कितना महिला विरोधी मानसिकता से बचोगे। तुम्हारा हीरो हर छोटी बात पर महिला विरोधी मानसिकता थूक रहा है…हीरो कहता है, ‘प्रीति, चुन्नी सही करो, ‘प्रीति, इस लड़की से दोस्ती करो इससे नहीं, ‘प्रीति, मैं तुम्हे सिर्फ 6 घंटे देता हूं, अपने बाप को समझाने के लिए।
किसी महिला को ऑब्जेक्टिफाय कर 2 घंटे का मनोरंजन पैकेज पेश करना आसान ही तो है, फ़िल्म पर मेहनत करो, बाकी समाज में फैली रिजिड (महिलाओं के लिए) मानसिकताएं 4-4 बार टिकट लेकर देखने आएंगी, और उछलेगी भी !
एक जगह जब हीरो को पता चलता है कि नायिका शादी करने के बाद अभी भी उसकी प्रेमिका है और मां बनने वाली है, तब हीरो वहां जाता है और उसकी बदहाल जिंदगी में वापस आने के लिए हाथ जोड़ता है और बच्चे को स्वीकार करता है। लो, पल भर के लिए तुम पिघल गए क्यों ?
लेकिन, फिल्म में क्या प्रोग्रेसिवनेस है जब चालाकी से हीरोईन फिर से पारंपरिकता का घूंघट ओढ़ कर सामने आ जाती है। आप इस सवाल को लिए ही घर आ जाते हो कि हीरोइन को यहां पवित्र दिखाने का क्या लॉजिक था ?
हां, कबीर सिंह के दोस्त के किरदार में सोहम मजूमदार काफी जचे है, एक दोस्त कैसे जिंदगी के हर पड़ाव में आपके काम आता है, इसकी कुछ झलकियां वहां देखने को मिलती है।
आखिर में एक जगह हीरो की आंख में आंसू हैं, अब हम यह कैसे देख सकते हैं, इतने बड़े पर्दे पर रोती हुई तो हमने “हीरोइन” ही देखी है! और वैसे भी “लड़की” है मान तो जाएगी ही, देखो तुम्हारा मेल ईगो कब से यही तो कह रहा था, और वो मान गई, चलो तालियां बजाओ, हैप्पी एंडिंग पर !
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