बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की गुलामी से आजादी दिलाने के लिए जगाई थी ‘उलगुलान’ की अलख

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भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी व लोक नायक बिरसा मुंडा की आज 148वीं जयंती है। मुण्डा आदिवासियों के मसीहा थे। उन्होंने आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया था। वे अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष करते हुए महज 25 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए। गौरतलब है कि बिरसा मुंडा एकमात्र ऐसे आदिवासी नेता हैं, जिनके सम्मान में भारतीय संसद संग्रहालय में उनकी तस्वीर लगी हुई है। इस खास अवसर पर जानिए आदिवासियों के भगवान बिरसा मुण्डा के प्रेरणादायी जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

आदिवासी मसीहा बिरसा मुंडा का जीवन परिचय

लोक नायक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को बंगाल प्रेसीडेंसी के उलिहातु गांव में हुआ था, जोकि अब झारखंड राज्य में है। उनके पिता का ननाम सुगना मुंडा और माता का करमी हातू था। उनके माता-पिता काम की तलाश में उलिहातु छोड़कर बीरबांकी के पास कुरुम्बड़ा में मजदूर (सजदेरी) या फसल-काटने वाले (रैयत) के रूप में आ गए। यहीं पर उनका व उनके भाई-बहिनों का जन्म हुआ। उनका बचपन चलक्कड़ में गुजरा। वह बचपन में जंगलों में भेड़ चराने जाते थे। उसे बांसुरी बजाने का शौक था। वह गांव में कुश्ती भी करते थे। गरीब होने के कारण वह अपने मामा के गांव अयुभतु आ गए। यहां पर वह दो वर्ष रहे।

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बिरसा ने पढ़ाई के लिए अपनाया ईसाई धर्म

बिरसा मुंडा सालगा में जयपाल नाग नामक व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में पढ़ने गया। उन्होंने बिरसा की विलक्षण प्रतिभा को पहचाना और उसे ईसाई मिशनरी में पढ़ने का सुझाव दिया। इन मिशनरियों का नियम था कि जो बच्चा ईसाई धर्म से है, उन्हें ही शिक्षा प्रदान की जाती थी। इस अनिवार्य नियम के चलते बिरसा को भी ईसाई धर्म अपनाना पड़ा। उन्होंने अपना नाम बिरसा डेविड रख लिया। कुछ वर्षों तक अध्ययन करने के बाद, उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल छोड़ दिया।

साहूकारों और अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष

अपनी पढ़ाई के बाद बिरसा मुंडा ने स्कूल छोड़ दिया। वे बचपन से ही साहूकारों व ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के खिलाफ विद्रोही थे। वर्ष 1894 में छोटा नागपुर में अकाल और महामारी ने जनजीवन का प्रभावित किया। इस दौरान बिरसा ने लोगों की सेवा की व आदिवासियों को अंधविश्वास छोड़कर इलाज करने के प्रति जागरूक किया। वे आदिवासियों के लिए धरती आबा यानी धरती पिता बन गए।

ब्रिटिश सरकार ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित किया, जिससे आदिवासियों को अपनी जमीन से बेदखल व अधिकारों से वंचित होना पड़ा। अंग्रेजों ने ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर दीं, जिससे आदिवासियों से खेती के लिए नए राजस्व कर देने पड़े। इससे उन्हें जमींदारों व महाजनों के अत्याचारों और शोषण का सामना करना पड़ा। यह देख बिरसा मुण्डा ने अपने समुदाय को गुलामी से आजादी दिलाने के लिए ‘उलगुलान’ (जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी) की अलख जगाईं।

अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा की अंतिम लड़ाई

आदिवासियों के मसीहा बिरसा मुंडा ने उलगुलान के दौरान ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया। उनके इस संषर्घ में सभी आदिवासी एकत्रित होने लगे और जंगलों पर अपनी दावेदारी के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुण्डा के उलगुलान को दबाने के लिए हर कोशिश की, लेकिन आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के आगे वे सफल नहीं हो पाए।

वर्ष 1897 में से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाइयां हुई। पर अंग्रेज उन पर काबू नहीं पा सके। बिरसा के सामने अंग्रेजों की तोप और बंदूकें बेअसर साबित हुई। जब अंग्रेज उसे पकड़ने में नाकाम रहे तो उस पर 500 रुपए के इनाम की घोषणा की। बस इसी लोभ ने अपने ही समुदाय के व्यक्ति का स्वाभिमान डिगा दिया और उसने बिरसा का ठिकाना अंग्रेजों को बता दिया।

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आदिवासी नेता बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम निर्णायक लड़ाई जनवरी, 1900 में उलिहातु के समीप डोमबाड़ी पहाड़ी पर हुईं। इस लड़ाई से पहले वह हजारों आदिवासियों के संबोधित कर रहे थे। इस दौरान अंग्रेज सैनिकों ने आदिवासियों पर बंदूकों और तोपों से आक्रमण कर दिया। इसमें अनेक आदिवासी मारे गए। स्टेट्समैन अखबार के अनुसार 25 जनवरी, 1900 को इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए। अंत में मुंडा को भी 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिया गया।

आदिवासी भगवान बिरसा मुंडा का निधन

आदिवासियों के जमींदारों व अंग्रेजी हुकूमत से उनके अधिकार और जमीन का हक दिलाने की कोशिश में संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने 9 जून, 1900 को रांची के कारागार में उनने अंतिम सांस लीं। वर्तमान समय में आजादी के इस दीवाने की बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ व पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भगवान की तरह पूजा की जाती है। बिरसा की समाधि रांची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं मूर्ति लगी है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार व बिरसा मुंडा हवाईअड्डा भी है।

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