2 दिसंबर, 1984 एक आम दिन की तरह था। पूरे दिन लोग अपने अपने रोजमर्रा के काम कर रहे थे। किसी ने सोचा भी न होगा इस आम दिन के बाद की रात हजारों की जान लेने लेगी। दो और तीन दिसंबर की दरमियानी रात को घटी पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना, भोपाल गैस त्रासदी।
1984 में 2-3 दिसंबर की वो काली रात थी। अंधेरे में शहर भोपाल के साथ-साथ यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री भी सोई पड़ी थी। तकनीकी वजहों से पिछले कई दिनों से फैक्ट्री में प्रोडक्शन ठप था लेकिन फैक्ट्री के 610 टैंक में भरी जहरीली मिथाईल आइसोसायनाइड गैस सांस ले रही थी।
रात को यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर ‘सी’ में टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाईल आइसोसायनाइड गैस के साथ पानी मिलना शुरू हुआ। गैस के साथ पानी मिलने से रासायनिक प्रक्रिया शुरू हो गई। तीन दिसंबर की अल सुबह तक टैंक में दबाव पैदा हुआ और टैंक खुल गया। टैंक खुलते ही जहरीली मिथाइल गैस रिसते हुए हवा में घुलना शुरू हो गई।
सूरज उगने से पहले ही महज कुछ घंटों के अंदर गैस हवा के झोंके के साथ आसपास के इलाके में फैलना शुरू हो गई और रात को सुकून की नींद सोए लोग मौत की नींद सोते चले गए। लोगों को मौत की नींद सुलाने में विषैली गैस को औसतन तीन मिनट लगे। सुबह होने तक जहरीली गैस अपना दायरा बढ़ाती गई और देखते ही देखते हजारों लोग मौत की भेंट चढ़ गए। सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई कारखाने के पास वाली झुग्गी बस्ती।
भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से निकली जहरीली गैस ने सब कुछ तबाह कर दिया था। उस दिन 40 टन मिथाईल आइसोसायनाइड गैस प्लांट से लीक हुई। करीब 5.21 लाख लोग इससे प्रभावित हुए। उन 3 दिनों में भोपाल और उसके आसपास के इलाके ने तबाही का मंजर देखा। 3 हजार से ज्यादा लोगों की मौत शुरुआती दिनों के अंदर हुई। पूरे गैस कांड में करीब 23 हजार से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई। ये आंकड़ा इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने जारी किया।
25 हजार से ज्यादा लोग इस गैस कांड के कारण पूरी तरह से शारीरिक तौर पर असक्षम हो गए। इस पूरे कांड के आरोपी वॉरेन एंडरसन को लेकर आजतक राजनीति होती है। उसका नाटकीय ढंग से भोपाल से जाना, आज भी एक रहस्य से कम नहीं। इंसानों के अलावा 2000 से ज्यादा जानवर भी इस गैस त्रासदी का शिकार बने। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, त्रासदी में 3828 लोगों की मौत और 18,922 लोग जीवन भर के लिए बीमार और 7172 लोग निशक्त हो गए थे।
1984 के 2-3 दिसंबर की रात को ही मौके पर तैनात फैक्ट्री के सुपरवाइजर्स को रात 11 बजे ही इस टैंक में मची खलबली का अहसास होने लगा था। लेकिन ये खलबली आगे कितनी खतरनाक होने जा रही थी किसी को इसका अहसास नहीं था। टैंक का बढ़ता तापमान सबकी परेशानी पर लकीरें खींच रहा था। हालात पर काबू पाने की मशक्कत जारी थी लेकिन जल्द ही कर्मचारियों को अहसास हो गया कि अब हालात उनके हाथ से निकल चुके हैं।
घबराए टेक्नीशियंस ने आखिरी कोशिश की और इस टैंक से जुड़ने वाली तमाम पाइप लाइंस काट दीं। अंदाजा था कि शायद इसी तरह टैंक में हो रहा रिएक्शन थम जाए। लिक्विड का गैस बनना रुक जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ और धमाके के साथ टैंक का सेफ्टी वाल्व उड़ गया।
सर्द हवा पर सवार जहरीली मिथाईल आइसोसायनाइड गैस शहर के भीतर घुस चुकी थी। इस गैस का असर नींद में दुबके हुए लोगों पर हुआ। उनका दम घुटने लगा। बेचैनी सी महसूस हुई और आंख खोलते ही मिर्ची का धुआं सा लगा, नींद उचटने के बाद जो बाहर निकले वो सीधे गैस की चपेट में थे।
हर सैकंड के साथ एक नया आदमी गैस का शिकार हो रहा था और घंटे भर के भीतर पुराने भोपाल शहर में मौत सड़कों पर नाच रही थी। बदहवास लोग इस जहर के असर से बचने के लिए जितना भाग रहे थे, मौत उन्हें चुन-चुन कर मार रही थी। किसी को पता नहीं था कि हुआ क्या है। किसी को ये भी पता नहीं था कि मौत सिर्फ अकेले उसी का पीछा कर रही है या और भी लोग इसके शिकार हैं।
जहर का पता नहीं था, इलाज कैसे होता? रात के तकरीबन डेढ़ बजे ज़हर ने भोपाल के मशहूर हमीदिया अस्पताल की इमरजेंसी पर दस्तक दी। घबराए लोगों के अस्पताल पहुंचने का सिलसिला शुरू हुआ। जब तक एक-दो लोग आए इमरजेंसी में मौजूद डॉक्टरों की समझ में कुछ नहीं आया। हमीदिया अस्पताल में बीमारों की तादाद बढ़ती जा रही थी। हालात का मुकाबला करने के लिए डॉक्टरों को इमरजेंसी कॉल भेजी गई।
अस्पताल में जूनियर डॉक्टरों को भी जगा कर ड्यूटी पर लगाया गया। लेकिन डॉक्टरों का सारा अमला लाचार था। उन्हें ये तो पता लग रहा था कि लाशों पर जहरीले केमिकल का असर है। बीमारों के लक्षण भी उन्हें जहर का शिकार बता रहे थे। लेकिन ये जहर है क्या ये जाने बगैर इलाज मुश्किल था। तब अचानक और पहली बार एक सीनियर फोरेंसिक एक्सपर्ट की जुबान पर आया मिथाइल आईसोसायनाइड का नाम।
उस रात भोपाल की पूरी आबादी ने सायनाइड जहर में सांस लिया। 3 दिसंबर की सुबह सूरज चढ़ता गया। चढ़ते सूरज के साथ भोपाल के आसमान में चीलें और गिद्ध मंडराने लगे। इनका मंडराना ही गवाही दे रहा था कि भोपाल की सड़कों पर कितनी लाशें बिछी हैं। इन लाशों में लोग तो थे ही, बड़ी तादाद में बेजुबान जानवर और मवेशी भी थे। इंसान ही इंसानी लाशों को जानवरों की तरह उठा रहे थे। गाड़ियों में भर रहे थे।
गैस त्रासदी के दौरान मोती सिंह कलेक्टर और स्वराज पुरी एसपी थे। यूनियन कार्बाइड से रिसी ‘मिक’ गैस के कारण हज़ारों लोगों की मौत हो गयी थी। हादसे के बाद यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चीफ वॉरेन एंडरसन भोपाल आए थे। मौके का मुआयना कर वो आनन-फानन में यहां से रवाना भी हो गया था। एंडरसन को भगाने में मदद करने का आरोप इन दोनों तत्कालीन अफसरों कलेक्टर मोती सिंह और एसपी स्वराज पुरी पर भी लगा था। इन दोनों अफसरों के ख़िलाफ आपराधिक केस दर्ज हुआ।
मोती सिंह और स्वराज पुरी के ख़िलाफ भोपाल ज़िला अदालत में कंप्लेंट केस दर्ज हुआ था। उनके ख़िलाफ धारा 212, 217 और 221 के तहत परिवाद दर्ज हुआ था। भोपाल ज़िला अदालत की कार्यवाही को जबलपुर हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी थी। याचिका में दलील दी गयी थी कि इस मामले में 26 साल बाद संज्ञान लिया गया। जबकि कानून के मुताबिक घटना के तीन साल के भीतर कार्यवाही की जाना चाहिए थी। ये भी कहा गया कि शिकायत निराधार और सिर्फ मैगज़ीन, मीडिया और किताबों में छपी कहानी के आधार पर की गयी थी।
त्रासदी के दौरान तत्कालीन कलेक्टर रहे मोती सिंह और एस पी स्वराज पुरी को जबलपुर हाईकोर्ट ने अब राहत दी है। हाईकोर्ट ने दोनों के ख़िलाफ भोपाल ज़िला अदालत में चल रहे आपराधिक मामले बंद करने का आदेश दिया है।
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