Ashapurna Devi gave prominent place to gender-based discrimination in her writings.
प्रसिद्ध कवयित्री व बंगाली उपन्यासकार आशापूर्णा देवी की आज 13 जुलाई को 28वीं पुण्यतिथि है। उन्हें वर्ष 1976 में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। आशापूर्णा को जबलपुर, रवीन्द्र भारती, बर्दवान और जादवपुर विश्वविद्यालयों द्वारा डी. लिट की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें उपन्यासकार और लघु कथाकार के रूप में योगदान के लिए साहित्य अकादमी द्वारा वर्ष 1994 में सर्वोच्च सम्मान ‘साहित्य अकादमी फैलोशिप’ से नवाजा गया था। उन्होंने स्त्रियों के समान अधिकार के लिए संघर्ष को अपनी कहानियों में प्रमुखता से जगह दीं। इस अवसर पर जानिए आशापूर्णा देवी के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
उपन्यासकार आशापूर्णा देवी का जन्म 8 जनवरी, 1909 को बंगाल प्रांत स्थित उत्तरी कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता का नाम हरेंद्रनाथ गुप्त था, जो एक कलाकार थे। वहीं उनकी माता का नाम सरोला सुंदरी था, जो एक शिक्षित परिवार से आती थीं। आशापूर्णा का बचपन वृंदावन बसु गली में बीता, जहां पर परंपरागत और रूढ़िवादी परिवार रहते थे, जो आपस में रिश्तेदार भी थे। वहां पर उनकी दादी की चलती थी। वह पुराने रीति-रिवाजों और रूढ़िवादी आदर्शों की कट्टर समर्थक थीं। यही नहीं घर की लड़कियों को स्कूल जाना मना था। घर पर लड़कों के लिए शिक्षक पढ़ाने आते थे।
जब आशापूर्णा देवी बच्ची थी, तब अपने भाइयों के पढ़ने के दौरान वह भी उन्हें सुनती थी। इस प्रकार उन्होंने अपनी आरंभिक शिक्षा ग्रहण कीं। बाद में उनके पिता अपने परिवार के साथ दूसरी जगह चले गए। जहां पर उनकी पत्नी और बेटियों को स्वतंत्र माहौल मिला। उन्हें पुस्तकें पढ़ने का भी मौका मिला। हालांकि, आशापूर्णा के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, लेकिन वह स्व-शिक्षित थीं। उन्होंने जिस अवधि में लेखन किया वह सामाजिक और राजनीतिक, राष्ट्रवादी आंदोलन और जागरण का समय था।
कवयित्री आशापूर्णा देवी बचपन में अपनी बहनों के साथ कविताएं लिखा करती थीं। उन्होंने एक कविता ‘बाइरेर डाक’ को ‘शिशु साथी’ के संपादक राजकुमार चक्रवर्ती को वर्ष 1922 में चोरी-चुपके प्रकाशित करने के लिए दीं। इसके बाद संपादक ने उनसे और कविता और कहानियां लिखने का अनुरोध किया। यही से उनका साहित्यिक लेखन शुरू हो गया था। वर्ष 1976 में आशापूर्णा को ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उन्होंने शुरुआत में बच्चों के लिए लिखना आरंभ किया। उनकी पहली बालोपयोगी पुस्तक ‘छोटे ठाकुरदास की काशी यात्रा’ थी, जो वर्ष 1938 में प्रकाशित हुईं। वर्ष 1937 में आशापूर्णा ने पहली बार वयस्कों के लिए ‘पत्नी और प्रेयसी’ कहानी लिखीं। उनका पहला उपन्यास ‘प्रेम और प्रयोजन’ था, जो वर्ष 1944 में प्रकाशित हुआ। आशापूर्णा देवी का ज्यादातर लेखन रूढ़ीवादी समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी लिंग-आधारित भेदभाव की भावना एवं संकीर्णतापूर्ण दृष्टिकोण से उत्पन्न असमानता और अन्याय के विरुद्ध एक जोश-भरा विरोध था।
बंगाली उपन्यासकार आशापूर्णा देवी की कहानियां महिलाओं पर हुए उत्पीड़न को उधेड़ती व एक नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने की अपील करती है। हालांकि, वह पाश्चात्य शैली के आधुनिक सैद्धांतिक नारीवाद का समर्थन नहीं करतीं। उनकी तीन प्रमुख कृतियां प्रथम ‘प्रतिश्रुति’, ‘सुवर्णलता’ और ‘कबुल कथा’ समान अधिकार प्राप्त करने के लिए स्त्रियों के अनंत संघर्ष की कहानी है।
मशहूर उपन्यासकार व कवयित्री आशापूर्णा देवी का निधन 13 जुलाई, 1995 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में हुआ।
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