वन नेशन, वन इलेक्शन का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है जब हाल में पीएम नरेंद्र मोदी ने सभी राजनीतिक पार्टियों से इस पर बात करने के लिए 19 जून को मीटिंग बुलाई है।
हालांकि ये मुद्दा कोई नया नहीं है। मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही देश में एक साथ चुनाव कराने को लेकर गंभीर है। इसके अलावा पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, लालकृष्ण आडवाणी और नीतीश कुमार जैसे दिग्गज नेता भी इसके समर्थन में अपनी राय रख चुके हैं।
ऐसे में आइए आपको बताते हैं क्या होता है वन नेशन वन इलेक्शन और इसको लागू करने के पीछे क्या पक्ष-विपक्ष के तकनीकी पेच।
क्या है वन नेशन वन इलेक्शन ?
इसका सीधा सा यही मतलब है कि पूरे देश में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे। अगर आपको लग रहा है कि यह कोई नया कांसेप्ट है तो ऐसा नहीं है। भारत में साल 1952, 1957, 1962 और 1967 में भी इसी तरह चुनाव हुए थे, लेकिन वो महज संयोगवश थे।
इसके अलावा 1983 में चुनाव आयोग ने भी सुझाव दिया कि ऐसा एक सिस्टम तैयार किया जाना चाहिए जहां हम लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करा सकें।
हालांकि इस विचार का विरोध करने वाले अधिकांश लोगों का कहना है कि यह तरीका असंवैधानिक है और इसको लागू करने के लिए संविधान में बदलाव करने होंगे। लेकिन संविधान में भी स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा गया है कि देश में एक राष्ट्र, एक चुनाव नहीं कराया जा सकता है।
क्यों होना चाहिए वन नेशन वन इलेक्शन ?
देश में एक साथ सभी चुनाव कराए जाने को लेकर कई तर्क हैं। इसके पक्ष में सबसे बड़ी ये बात है कि यह की चुनावी खर्चा कम होगा। गौरतलब है कि देश में होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाए जाते हैं।
इसके अलावा वन नेशन वन इलेक्शन से केंद्र और राज्य सरकारें एक साथ आपसी तालमेल से काम कर सकती है और पूरे देश में एक ही वोटर लिस्ट बनेगी।
क्यों नहीं होना चाहिए वन नेशन वन इलेक्शन ?
वहीं इस विचार के खिलाफ भी कई तरह के तर्क हैं। इसका विरोध करने वालों का कहना है कि देश के ज्यादातर वोटर परंपरागत तरीके से वोट डालते हैं ऐसे में पूरे देश में एक पार्टी का राज हो जाएगा। वहीं इससे क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व भी मिट सकता है।
एक साथ चुनाव करवाने से सीधा फायदा राष्ट्रीय पार्टियों को होगा, वहीं छोटी पार्टियों को कुछ हासिल नहीं होगा।
लागू कैसे किया जा सकता है ?
हमारे देश में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल अलग-अलग समय पर खत्म होता है।
संविधान का अनुच्छेद 83(2) कहता है कि लोकसभा का कार्यकाल 5 साल का होगा या जब तक कि इसे पहले भंग नहीं किया जाता। इसी तरह, अनुच्छेद 172 कहता है कि राज्य विधानसभा का कार्यकाल भी 5 साल का होगा या फिर जब तक कि पहले इसे भंग नहीं किया जाता।
हालाँकि, राज्य विधानसभाओं को संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार केवल कुछ खास कारणों से ही भंग किया जा सकता है। ऐसे में एक साथ चुनाव करवाने के लिए किसी को पहले भंग करना होगा जिसके लिए संविधान में भी संशोधन करने होंगे।
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