संयुक्त राज्य अमरिका इस हफ्ते ईरान के खिलाफ सैन्य हमला करने के लिए तैयार था। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ट्वीट कर कहा था कि उनकी सेना इस्लामिक रिपब्लिक ईरान में तीन साइटों पर हमला करने के लिए तैयार थी। जिसमें 150 लोगों की जान जा सकती थी। ट्रंप ने कहा कि स्ट्राइक होने से ठीक 10 मिनट पहले मैंने ऑपरेशन रोक दिया।
अमेरिका और ईरान के बीच तनाव बढ़ता ही जा रहा है। कई लोग सोच रहे हैं कि क्या अमेरिका डेढ़ दशक बाद फिर एक बार ऐतिहासिक गलती को दोहराने जा रहा है?
फिलहाल कहना असंभव है लेकिन पिछले कुछ दिनों में जो तनाव दोनों देशों के बीच देखने को मिल रहा है उससे खतरा बढ़ता ही जा रहा है।
सबसे पहले अमेरिका ने 13 जून को ईरान पर ओमान की खाड़ी में दो तेल टैंकरों पर हमले का आरोप लगायाहालांकि तेहरान ने इन दावों से इनकार किया था।
फिर इस हफ्ते गुरुवार को ईरान ने एक मानवरहित अमेरिकी जासूस ड्रोन को मार गिराया। तेहरान ने दावा किया कि ड्रोन ईरानी हवाई क्षेत्र में उड़ रहा था और जासूसी कर रहा था। इस पर अमरिका ने दावा किया कियह अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र में उड़ान भर रहा था, न कि ईरानी हवाई क्षेत्र में।
अमेरिकी सेना ने ड्रोन की शूटिंग के लिए जवाबी कार्रवाई करने की तैयारी की और फिर जैसा कि ट्रंप ने ट्वीट किया कि अंतिम समय में उस हमले को रोक दिया गया।
ट्रंप जहां ड्रोन वाले मामले में कार्यवाही नहीं कर रहे हैं इससे लगता है कि युद्ध की संभावना तो नहीं है लेकिन विवाद अभी भी गर्माया हुआ है।
अमरिकी राजनीतिक प्रतिष्ठान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, मुख्य रूप से ट्रम्प की पार्टी रिपब्लिकन ऐसा चाहती है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार ट्रम्प की पूरी राष्ट्रीय सुरक्षा टीम भी ऐसा चाहती है। वास्तव में, अमेरिकी राष्ट्रपति के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन और उनके सचिव माइक पोम्पिओ “रेजिमी चेंज” के बेहद कट्टर समर्थक हैं। रेजिमी चेंज टर्म का इस्तेमाल अमेरिका करता है जिसका मतलब होता है कि विदेशी जगह पर हमला करना और वहां पर ऐसा व्यक्ति को नियुक्त करना जो अमेरिका के हित में हो।
बोल्टन के कारण कई तरह की समस्या का सामना करना पड़ा। उन्हीं के कारण ऐसे नकली सबूतों को फैलाया गया जिसमें कहा गया कि क्यों अमेरिका ने 2003 में इराक के साथ युद्ध किया। इसके बाद अमेरिका ने दावा किया था कि इराक के पास बड़े पैमाने पर विनाशकारी हथियार थे जो दुनिया के लिए खतरा था। अमेरिकी आक्रमण के बाद हालांकि ऐसा कोई हथियार नहीं मिला।
लेखक ज़ैक बेउचम्प ने वोक्स में लिखा था कि कुछ इराक युद्ध समर्थक अब पश्चाताप कर रहे हैं, बोल्टन रूढ़िवादी आंदोलन के विंग का प्रतिनिधित्व करता है जो यह मानता है कि शासन परिवर्तन यानि रेजिमी चेंज युद्ध अमेरिका की समस्याओं को हल कर सकते हैं।
व्यावहारिक रूप से हर कोई। जब अमेरिका ने 2003 में इराक के साथ युद्ध में जाने की तैयारी शुरू की तो उसके कोर डिप्लोमेट्स ने 40 से अधिक देशों को गठबंधन में लाने का काम किया। ईराक के साथ युद्ध के परिणाम विनाशकारी थे। और अब ट्रंप के शासन काल को देखते हुए मध्य पूर्व में कोई देश इस युद्ध का समर्थन नहीं है।
माना जाता है कि ट्रम्प खुद युद्ध के विचार के विरोधी थे। उनके चुनाव अभियान ने इराक की आपदा पर जोर दिया और राष्ट्रपति के रूप में उनकी नीतियों ने इस विचार को फैलाने की कोशिश की कि अमेरिका दुनिया में ऐसे हस्तक्षेप नहीं करेगा। ट्रंप के आसपास के सलाहकारों का मानना है कि जबकि ट्रंप युद्ध नहीं चाहते हैं मगर एक तरह ये उनके इगो, पब्लिक रिलेशन की बात है जिसमें उन्हें ऐसा लगता है कि वे कमजोर ना दिखें।
सीधा – सा जवाब है ‘नहीं’। कुछ साल पहले पश्चिमी यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका और पांच अन्य देशों (चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी और रूस) ने ईराक के साथ एक समझौता किया था। यह समझौता पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की विदेश नीति के दौरान किया गया था। इस सौदे में तेहरान ने परमाणु हथियारों को विकसित करने की परमाणु क्षमता को खत्म करने या कम करने का वादा किया, जिससे परमाणु हथियार विकसित करने की संभावना कम हो गई।
यह समझौते को लाने में कई सालों की बातचीत हुई थी जिसके साथ ही वैश्विक बाजार में ईरान की वापसी हुई थी। हालांकि ट्रम्प ने इसके खिलाफ अभियान चलाया। सत्ता में आने के बाद उन्होंने अमेरिका को समझौते से बाहर कर दिया और प्रतिबंधों को फिर से लागू किया। अन्य देशों विशेष रूप से यूरोपीय लोगों ने ईरान को अमेरिकी प्रतिबंधों से निपटने के लिए बहुत कम मदद की जिसके कारण ईरान की मुसीबतें बढ़ीं। इसलिए, तेहरान ने फिर से यूरेनियम को समृद्ध करने की धमकी दी।
रिपब्लिकन पार्टी के कुछ लोगों का तर्क है कि ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को रोकने के लिए ओबामा के सौदे ने तेहरान को उसके क्षेत्रीय समस्याओं पर मजबूर करने का काम नहीं किया। जिसमें हिज़्बुल्लाह जैसे कई संगठनों का समर्थन भी शामिल है जो अमेरिकी सहयोगियों के विरोधी हैं। लगभग कोई भी दावा नहीं करता है कि ईरान ने खुद इस सौदे का उल्लंघन किया है और वास्तव में आज तक भी ईरान इस सौदे के नियमों को फोलो कर रहा है लेकिन ईरान अब एक तरह से धमकी दे रहा है कि उसे इकॉनोमिक सपोर्ट दिया जाए वरना यूरेनियम का काम वापस शुरू हो सकता है।
ज्यादा नहीं, सिर्फ हिंसा और लोगों की मौत। यह देखना मुश्किल है कि अमेरिका अपना इगो सेटिस्फाय करने के अलावा इस युद्ध से क्या निकाल पाता है।
बोल्टन और पोम्पेओ शासन परिवर्तन में विश्वास करते हैं। लेकिन ईरान इराक के मुकाबले बहुत मजबूत राष्ट्र है राजनीतिक और सैन्य तौर पर भी। ऐसे में ईरान से युद्ध होने पर बहुत खूनखराबा होगा।
इसके अलावा आबादी का एक बड़ा हिस्सा वास्तव में वर्तमान ईरानी नेतृत्व का समर्थन करता है। कोई भी वैकल्पिक शासन वहां अमेरिका लगवा नहीं सकता अगर ऐसा होता भी है तो वो अमेरिका विरोधी होगा।
फिलहाल भारत पर यूएस-ईरान तनाव का प्राथमिक प्रभाव ऊर्जा के संदर्भ में है। भारत के ईरान के साथ सांस्कृतिक और व्यापार संबंध हैं और भारत कभी ईरानी तेल के सबसे बड़े ग्राहकों में से एक था लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण इसमें काफी कमी आई है।
हालांकि भारत फिलहाल कहीं और से अपने तेल की डिमांड को पूरा कर रहा है। अगर युद्ध होता है और लंबे समय तक तेल की आपूर्ति रूक जाती है तो भारत की ऊर्जा आपूर्ति प्रभावित होगा।
एक आक्रमण के बाद पूरे क्षेत्र को नष्ट करने का भारत पर भी बड़ा प्रभाव पड़ेगा। ईरान के इन क्षेत्रों में भारत के लिए कई व्यापार हित मौजूद हैं।
भारत की ऊर्जा आपूर्ति पर पड़ने वाले प्रभाव के अलावा अरब प्रायद्वीप में 7 मिलियन भारतीय नागरिक भी रहते हैं, जो कि अमेरिका द्वारा ईरान के साथ शुरू होने वाले किसी भी संघर्ष में फंस सकते हैं। अमेरिका के पास कुवैत, कतर, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान में सभी सैन्य ठिकाने या सेना की मौजूदगी है जहां पर भारतीय नागरिक बड़ी संख्या में हैं।
हालांकि कुवैत को छोड़कर इनमें से कोई भी देश इराक युद्ध के दौरान सीधे प्रभावित नहीं हुए थे। जवाबी कार्रवाई करने की ईरान की क्षमता कहीं अधिक शक्तिशाली होगी और आस पास के सारे देश इससे प्रभावित होंगे।
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