After the publication of 'Soje Watan' the british government went after novelist Munshi Premchand.
हिंदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकारों में से एक ‘कलम के सिपाही’ मुंशी प्रेमचंद की आज 31 जुलाई को 143वीं जयंती है। प्रेमचंद अपनी अलग छाप छोड़ने वाली हिंदी और उर्दू भाषी रचनाओं के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान दिया था, जिसे देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ के नाम से संबोधित किया। भले ही उन्हें दुनिया को अलविदा कहे अब दशकों हो चुके हैं, लेकिन उनके उपन्यास आज भी दुनियाभर में काफी पढ़े जाते हैं। इस ख़ास अवसर पर जानिए हिंदी के मशहूर लेखक प्रेमचंद के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पास स्थित लमही नामक गांव में हुआ था। उनका बचपन का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनके दादा गुरु सहाय राय एक पटवारी थे और उनके पिता अजायब राय एक पोस्ट ऑफिस में क्लर्क थे। धनपत राय के चाचा ने उन्हें ‘नवाब’ उपनाम दिया। प्रेमचंद जब सात साल के थे, तब उनकी प्रारंभिक शिक्षा लमही के पास स्थित लालपुर के एक मदरसे में शुरू हुईं। उन्होंने यहीं पर उर्दू और फ़ारसी भाषा सीखीं। जब वो 8 वर्ष के थे, तब उनकी मां का लंबी बीमारी के कारण निधन हो गया था। इसके बाद उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली। प्रेमचंद को अपनी सौतेली मां से बहुत कम स्नेह मिला था।
प्रेमचंद ने वर्ष 1898 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और महज 15 साल की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया था। प्रेमचंद की पत्नी उनसे उम्र में बड़ी और दिखने में उतनी आकर्षक नहीं थीं। इसलिए उनमें अनबन शुरू हो गई और कुछ समय बाद दोनों अलग हो गए। मुंशी प्रेमचंद आर्य समाज से काफी प्रभावित थे और उन्होंने विधवा विवाह का न केवल समर्थन किया, बल्कि अपना दूसरा विवाह वर्ष 1907 में विधवा शिवरानी देवी से किया। उन दोनों की तीन संतानें हुईं। इनमें दो बेटें श्रीपत राय व अमृत राय और एक बेटी कमला देवी श्रीवास्तव थीं।
विवाह के एक साल बाद ही प्रेमचंद के पिता का देहांत हो जाने से उन पर परिवार की सारी जिम्मेदारी आ गईं। परिवार की आर्थिक दशा खराब होने के कारण वे एक विद्यालय में पढ़ाने लग गए। उन्होंने नौकरी के साथ ही अपनी पढ़ाई भी जारी रखीं। वर्ष 1910 में मुंशी प्रेमचंद ने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास की और वर्ष 1919 में स्नातक परीक्षा पास करने के बाद ही प्रेमचंद शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हो गए।
वर्ष 1907 में मुंशी प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने भारतीयों की गुलामी और शोषण के दर्द को उभारा, साथ ही देश प्रेम को भी दर्शाया। उनकी इस रचना से अंग्रेजों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत महसूस हुई। इसके साथ ही रचनाकार की खोज शुरू कर दी थी। इस समय वह ‘नवाब राय’ के नाम से लिखा करते थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया। साथ ही बिना आज्ञा नहीं लिखने का बंधन लगा दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत की बंदिशों से उनकी कलम रूकी नहीं, बल्कि उन्होंने अपना नाम ही बदल लिया और प्रेमचंद के नाम से लेखन कार्य शुरू कर दिया।
मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन की शुरुआत वर्ष 1901 से हुई। उनकी पहली हिंदी कहानी सरस्वती पत्रिका के अंक में वर्ष 1915 में ‘सौत’ नाम से प्रकाशित हुई। उनके प्रमुख उपन्यासों में ‘सेवा सदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ शामिल है। ‘गोदान’ प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में शामिल थी। उनके जीवन काल में कुल नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- ‘सप्त सरोज’, ‘नवनिधि’, ‘प्रेमपूर्णिमा’, ‘प्रेम-पचीसी’, ‘प्रेम-प्रतिमा’, ‘प्रेम-द्वादशी’, ‘समरयात्रा’, ‘मानसरोवर’: भाग एक व दो और ‘कफन’। वर्ष 1936 में उनकी अंतिम कहानी ‘कफन’ प्रकाशित हुईं। प्रेमचंद की मृत्यु के बाद उनकी कहानियां ‘मानसरोवर’ शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई, जिन्हें हिंदी पढ़ने वाले पाठकों द्वारा खूब पसंद किया गया।
प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियां जो आज भी पाठकों के बीच अपनी पकड़ बनाए हुए हैं, उनमें प्रमुख हैं- ‘पंच परमेश्वर’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘दो बैलों की कथा’, ‘ईदगाह’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘पूस की रात’, ‘कफन’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘सद्गति’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘तावान’, ‘विध्वंस’, ‘दूध का दाम’, ‘मंत्र’ आदि। प्रेमचंद का आखिरी उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ था जो दुर्भाग्यवश अधूरा रह गया। उन्होंने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना में भी अहम भूमिका निभाईं। मशहूर उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद का लंबी बीमारी के कारण 56 वर्ष की उम्र में 8 अक्टूबर, 1936 को देहांत हो गया।
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