सिखों के दसवें और आखिरी गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी की 7 अक्टूबर को 312वीं पुण्यतिथि हैं। गुरु गोबिंद अदम्य साहस और धर्मनिष्ठा के प्रतीक थे, साथ ही योद्धा, कवि और खालसा पंथ के संस्थापक भी थे। जब उनके पिता गुरु तेग बहादुर का इस्लाम स्वीकार न करने पर सिर कलम कर दिया गया, तो गुरु गोबिंद सिंह को नौ वर्ष की उम्र में सिखों का 10वां गुरु बनाया गया।
गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म 5 जनवरी, 1666 को बिहार के पटना साहिब में हुआ था। उनके पिता सिखों के नौवें गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी थे। उनका बचपन का नाम गोबिंद राय था। पटना में उनके बचपन के चार साल बीते, यहीं पर अब तख्त श्री पटना साहिब स्थित है। वर्ष 1670 में उनका परिवार पंजाब आ गया और बाद में हिमालय के शिवालिक पहाडियों में रहने चला गया। यहीं पर चक्क नानकी नामक स्थान पर उनकी शिक्षा शुरु हुई। इस स्थान का वर्तमान में आनंदपुर साहिब के नाम से पुकारा जाता है। उन्होंने फारसी और संस्कृत भाषा में शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा के सैन्य प्रशिक्षण भी किया। उनके पिता ने अपनी मृत्यु से पहले ही गुरु गोबिंद सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों के जबरन धर्म परिवर्तन करने पर मुस्लिमों का विरोध किया। इस पर उन्होंने मुगल शासक औरंगजेब से शिकायत की और शांतिपूर्ण, सौहार्द्रपूर्ण माहौल बनाने का आग्रह किया। इस पर औरंगजेब ने उनकी बात नहीं मानी बल्कि उन पर इस्लाम ग्रहण करने का दबाव बनाया और जब उन्होंने धर्म स्वीकार नहीं किया तो 11 नवंबर 1675 को उनका सिर कलम कर दिया गया। उनके बाद सिखों के दसवें गुरु के रूप में 29 मार्च 1676 को गुरु गोबिंद सिंह का विराजमान किया गया। कम उम्र में गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा निरंतर जारी रही। उन्हें पढ़ाई के साथ ही घुड़सवारी और धनुष चलाना आदि का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उन्होंने वर्ष 1684 में चंडी दी वार कि रचना की। वर्ष् 1684 में उन्होंने पंजाबी भाषा में ‘चंडी दी वार’ लिखी। उन्होंने वर्ष 1685 तक यमुना नदी के किनारे स्थित पांवटा में निवास किया।
गुरु गोबिंद सिंह ने तीन शादियां की। उनकी पहली शादी 10 साल की उम्र में माता जीतो से हुई। उनकी पहली पत्नी से उन्हें तीन बेटे हुए, जिनमें जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह थे। उनकी दूसरी शादी 17 साल की उम्र में 4 अप्रैल, 1684 को आनंदपुर में माता सुंदरी से हुई। इनसे एक बेटा अजीत सिंह का जन्म हुआ था। गुरु गोबिंद की तीसरी शादी 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में माता साहिब देवन से हुई थी।
गुरु गोबिंद सिंह ने सन् 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की, जोकि सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप था। उन्होंने पांच ‘क’ कारों का महत्व खालसा के लिए समझाया, जो केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा थे। मुगलों से उनका संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष में उनके दो छोटे बेट जोरावर सिंह व फतेह सिंह को मुगलों ने दीवार में चुनवा दिया था। 8 मई सन् 1705 में ‘मुक्तसर’ नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई।
गुरु गोबिंद सिंह 42 वर्ष की उम्र में दो पठानों द्वारा धोखे से सीने में कटार मारने के बाद घायल हो गए और 7 अक्टूबर, 1708 को नांदेड़ में शहीद हो गए थे। शहीद होने से पहले एक पठान का उन्होंने सिर काट गिराया था, जबकि दूसरे को सिक्ख सेना ने मार दिया। इस तरह उन्होंने लड़ते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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