लोकसभा चुनाव बस आने को ही हैं। ऐसे में पक्ष और विपक्ष अपने अपने तरीकों से वोटरों को लुभाने के प्रयास मे हैं। चुनाव के अपने आप में कई पहलू हैं। एक पहलू महिला वोट का भी है जिसे देखने और समझने की जरूरत है।
राष्ट्रीय और राज्य चुनावों में पिछले कुछ सालों में महिला वोट में बढ़ोतरी देखी गई है लेकिन संसद और राज्य विधानसभाओं में उनकी हाजरी को उतनी गति अभी तक नहीं मिली है। 1971 में महिलाओं का वोट प्रतिशत 48 था जो 1984 में 60 प्रतिशत तक बढ़ गया।
उन दिनों इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी और महिला मतदाता इसी वजह से एकजुट हुआ था। 1991 में 10 प्रतिशत से अधिक की गिरावट के बाद, मतदान में फिर थोड़ी बढ़ोतरी देखी गई।
पिछले दशक और 2009 के बाद से संसदीय और विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की बढ़ती संख्या ने पुरुषों और महिलाओं के चुनावी मतदान दर के बीच अंतर को कम किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं का मतदान पुरुषों के 67.1 प्रतिशत के मुकाबले 65.3 प्रतिशत था।
इसलिए 1967 में महिलाओं का मतदान पुरुषों की तुलना में 11.2 प्रतिशत कम था। मतदाता मतदान में लिंग अंतर 2014 तक 1.8 प्रतिशत तक कम हो गया था।
इन सबके बाद भी संसद और विधानसभा में महिलाओं की संख्या दयनीय ही है। संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लगातार खराब प्रतिनिधित्व को दर्शाता है।
1952 में महिला लोकसभा सांसदों की संख्या 4.7 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 11.4 प्रतिशत हो गई। राज्यसभा में, महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व केवल 15 प्रतिशत पर थोड़ा ही अधिक था।
लोकसभा में महिला सांसदों का प्रतिशत 1962 में 6.3 प्रतिशत और 1977 में 3.5 प्रतिशत था (अब तक का सबसे कम) 1984 में, जब कांग्रेस के इतिहास में सबसे ज्यादा महिला उम्मीदवार चुनी गईं (42 में से 38), महिला सांसदों का प्रतिशत 7.9 प्रतिशत हो गया।
अगले चुनाव में, संख्या फिर से डूब गई। लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत से धीरे-धीरे इसमें बढ़ोतरी देखी गई है। 2009 में, संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी 10.5 प्रतिशत थी जो 2014 में बढ़कर 11.4 प्रतिशत हो गई। सभी चुनावों में निर्वाचित महिला सांसदों का प्रतिशत महिला उम्मीदवारों के प्रतिशत से लगातार अधिक रहा है।
राजनीतिक दल अक्सर यह तर्क देते हैं कि वे पुरुषों की तुलना में महिला उम्मीदवारों को मैदान में कम इसलिए लाते हैं क्योंकि महिलाएं ‘कम चुनाव योग्य’ होती हैं। फिर भी आंकड़ों से सामने आया है कि महिला सांसदों की ‘चुनावी क्षमता’ पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक है।
राज्यों में हालात और भी अजीब हैं। राज्य की विधानसभाओं में, महिला विधायकों का प्रतिशत संसद की तुलना में लगातार कम रहा है।
यह मतदाताओं के अन्य समुदायों के मतदान के रुझान और प्रतिनिधित्व अनुपात के विपरीत है। उदाहरण के लिए मंडल आयोग के दौर में ‘पिछड़ी जाति’ के मतदाताओं के बढ़ते मतदान के कारण संसद और राज्य विधानसभाओं में अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का उच्च प्रतिनिधित्व हुआ।
उच्चतर मतदान के बावजूद महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होने का एकमात्र कारण अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों, जहां उच्च मतदान का संसद या राज्य विधानसभाओं (जम्मू और कश्मीर को छोड़कर) में अधिक प्रतिनिधित्व नहीं है।
अधिक महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के दबाव में राजनीतिक दल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसा कर रहे हैं। नॉर्वेजियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स के राजनीतिक वैज्ञानिक फ्रांसेस्का आर जेनसेनियस का कहना है कि राजनीतिक दल आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में पुरुष राजनेताओं को अन्य पुरुष कार्यालयधारकों की तुलना में अधिक डिस्पेंसबल के रूप में देखते हैं। 1980 और 2014 के बीच, आरक्षित सीटों के लिए 7 प्रतिशत लोकसभा उम्मीदवार महिलाएं थीं।
राजनीतिक दल आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में अधिक महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारते हैं, इसलिए लोकसभा चुनाव जीतने वाली महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा इन सीटों से संबंधित है।
हिंगसन का तर्क है कि 1980 के बाद से आरक्षित लोकसभा क्षेत्रों में औसतन 16.2 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की वहीं सामान्य सीटों पर 11.5 प्रतिशत महिला उम्मीदवार ही जीत दर्ज कर पाईं।
1952 और 1991 के बीच आरक्षित और अनारक्षित सीटों के बीच महिलाओं की उम्मीदवारी दरों में अंतर महत्वपूर्ण नहीं है। अयोध्या और नौकरियों के लिए जाति-आधारित आरक्षण जैसे ध्रुवीकरण के मुद्दों ने 1991 के बाद राजनीतिक दलों के बीच भयंकर प्रतिस्पर्धा पैदा की और इसे एक लिंग युद्ध में बदल दिया।
1996 तक, महिला आरक्षण विधेयक के लिए संघर्ष शुरू हो गया था। परिणामस्वरूप, महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षित और अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के बीच अंतर अधिक स्पष्ट हो गया है।
महिलाओं द्वारा बढ़ते मतदान के बावजूद जहां संसद और विधानसभाओं में इनकी संख्या बढ़ नहीं रही है। यह विरोधाभास पंचायत चुनावों में नहीं देखा गया क्योंकि महिलाओं के लिए वहां सीटें आरक्षित की गई हैं।
1996 से, महिला आरक्षण विधेयक के मतदाता लोकसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए बहस कर रहे हैं। फिर भी, भाजपा और कांग्रेस दोनों ही बिल के पक्ष में बहस करने के बावजूद इसको एक्जिक्यूट नहीं किया जा सका है।
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